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________________ RAMNAME २८२ ] जन युग-निर्माता । पथ पर छोड़ दूंगा, अशांत और दुखी जनताका मैं पथ प्रदर्शन करूंगा, उसके लिए मुझे अपना सर्वस्व त्याग करना होगा । लोककल्याणके लिए मैं सब कुछ करूंगा, तपस्वी बनकर मैं भग्नी मात्माको पूर्ण विकसित करूंगा और पवित्र आत्म-ध्वनिको संसारभरमें फैल ऊंगा। यह विचार आते ही वे बालब्रह्मचारी महावीर ताम्बी बनने के लिए तैयार हो गए। त्रिशला माताको अपने पुत्र के विचार ज्ञात हुए। पुत्र वियोग के मथाइ दुखसे उनका हृदय विकल होगया । वह इस दुखको सह न सकी । रोते हृदयसे बोली- पुत्र ! मैं अबतक पुत्रवधूके मुखोसे वंचित रहकर भी तुम्क्षरा मुंह देखकर संतोष कर रही थी लेकिन अब तुम भी मुझे त्यागकर जा हे हो अब मेरे जीवनका क्या सहारा रहेगा? पुत्र ! इतने बड़े (ज्य वैभव का त्याग तुम क्यों कर रहे हो । क्या गृहस्थजीवनमें रहकर तुम लोक-कल्याण नहीं कर सकते ! महलों में रहनेवाला तुम्हारा यह शरी। ताम्याके कठिन कष्टको कैसे महान कर सकेगा ? मैं प्रार्थना क ती हूं कि जननी के पवित्र प्रेमको तुम इसतरह मत टुकरामो गृहस्थ जीवन में २८ कर ही संमारका कल्याण करो।" नननीको सान्त्वना देते हुए महावीर बोले-"जननी ! इम उत्मवके समयमें माज यइ खेद कैसा ? तेग पुत्र संसार का उद्धार करने जारहा है, आत्मकल्याणके प्रशस्त पथका पथिक बन रहा है, यह जानकर तो तेरा हृदय गौरवसे भर जाना चाहिए । गौरवमयी जननी ! गृहस्थ जीवन के पावन मा मेरी मारमा स्वीकार नहीं करती, अब तो यह संसारमें मात्मस्वातंत्र्य और समताका
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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