SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शीलवती सुदर्शन । [२५१ कपिला अपना कथन समाप्त कर आगे बढ़ी, वह सुदर्शनका मालिंगन करना चाहती थी। सुदर्शनने देखा, जानेका द्वार बंद था। एक क्षण में भारी भनकी भाशंभ से मालूम हुई। उसने देखा ज्ञानसंभव काम नहीं चलता है। उसने अब छरुका आलम्बन लिया, मानेको पंछे हटाते हुए व बोला "थोड़ासा ठहरिए, आप यह क्या अनर्थ कर रही हैं ? बाप सोच रखिए आपको मेरे भलिंगनसे कुछ भी तृप्त नहीं मिलेगी, केवल पश्चात्ताप मिलेगा। माप जिस आशासे मुझे ग्रहण कर चाहती हैं वह भाशा मापकी पूर्ण नहीं होगी।" कपिला तेजित होकर बोली- मेरी शा अवश्य पूर्ण होगा, क्यों नहीं होगी ? आपका आलिंगन मुझे जीवनदान देगा' सुदर्शन सी म्बरमें बोला- नहीं होगी, कभी नहीं हो रमणी ! तु जिसे अनंग २६से भा सुन्दर प्याला समझ रही है उस तृप्ति प्रदान कानेकी जरा भी शक्ति नहीं है। जिसे तू शांति प्रदायक चन्द्रबिंब समझ रही है वह गहुके कठिन ग्रास ग्रसित है। पुरुषत्व विहीन और रति क्रिया क्षीण पुरुषके आलिंगनसे तुझे क्या तृप्ति, क्या पुस्ख मिले!? इसमें न तो रतिदान देनेकी शक्ति है और न मदनकी स्फूर्ति है !" कपिला चौककर बोली-" है ? भाप यह का कह रहे हैं ? नहीं मुझे विश्वास नहीं होता, माप यह सब मुझे छलने का प्रयत्न कर रहे है। मैं आपकी बातका विश्वास नही कर सकती।" सुदर्शनने अत्यंत विशासके स्वरमें कहा-"माश्चर्य है, तुम्हें
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy