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________________ २५० जैन युग-निर्माता। एने लगती है। प्रेम वह मंत्र है जिसमें वासना और विलामकी भावनाएं नष्ट होजाती हैं । प्रेम वह अपृव बस्तु है जि के द्वारा मानव ईश्वरके क्षिात् दर्शन कर सुख और शांतिके अन साम्राज्यको प्राप्त करता है। तू इस पवित्र शब्दका गला मन घट : अमर तू प्रेम ही काना चाहता है तो अपने पवित्र पातिव्रत धर्मसे प्रेम कर जो तेरे जीवनको स्वर्गीय बना देगा। कपिगगका मन अभी तक शांत नहीं हुआ था। वह अपने अंतिम शस्त्र का प्रयोग करना चाहती थी। उसने अपने नत्रों को अधिक मादक बना लिया था: बचनों में मधुकी मधुरताका पाहन कर लिया था। वह बोली- प्राणेश ! मापके मुंहसे धर्म धर्मकी बात मैं ईवार सुन चुकी हं. लेकिन मैं नहीं समझनी कि धर्म क्या है ? और उससे क्या सुरूर मिलता है ! कुछ समयको यह मान भी लें कि तरह महके कष्ट देका शरीरको तपानिमें तपाकर और प्राप्त सुखों का त्याग कर हम धर्मके द्वग पालोको स्वर्ग सुख प्राप्त कर लेंगे, लेकिन आपके उस धर्मके साथ भी तो उसी स्वर्गीय सुखका सवाल लगा हुआ है। फिर परलोकके अपप्त सुखोकी लालसामें वर्तमान मुखको ठुकरा देना ही क्या धर्मकी भापकी व्याख्या है ? तब इस व्यायाको आप परलोकके लिए ही रहने दीजिए। इस लोकके लिए तो इस समय जो कुछ प्राप्त है उसे ग्राण कीजिए । स्मरण रहे आपके शब्द जालमें बह शक्ति नहीं है जो उन्मत्त रमणीके तर्कके सामने स्थिर रह सके । उसे तो भाप कब रहने दीजिए और मुझे अपना आलिंगन देकर मेरे नीवन भोर यौवनको कृतार्थ की जिए ।
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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