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________________ momwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwmusmanumanAMINARONUNWANIMANORamme २१०] जैन युग-निर्माता। किर हुए भयानक पाप फरसे शीघ्र ही सावधान होगया, यह तेरा शुभोदय समझना चाहिए । अब तेरा भात्मकल्याण होने में कुछ समयका ही विलम्ब है। तृ अपनी यात्माको अब अधिक खेदित मत कर, आत्मामें अनन्त शक्तियां हैं, उसी मात्म-शक्तिके पकाश मय पथ प! चलकर तू अपना कल्याण कर । ____ भक्तवत्सल नेमिनाथकी दगपूर्ण वाणीसे युवक गजकुमारको बहुत संतोष मिला। वह प्रसन्न होकर बोला-भगवन् ! आपकी मुझ पापात्मा पर यदि इतनी अनुकम्मा है तो मुझे महावतोंकी दीक्षा दीजिए, जिनसे मैं अपना जीवन सफल कर सकूँ। ___ भगवान ने उसे दया करके साधु दीक्षा प्रदान की । कामतृष्णा में लिप्त हुमा मदोन्मत्त युवक गजकुमार नेमिनाथकी पवित्र शरण में आकर एक क्षणमें कल्याणके महाक्षेत्रमें उतर पड़ा। उसका पाप पंक धुल गया, वह दीक्षा लेकर भयानक वनमें तीव्र तपश्वरम करने लगा। __प्रति हिंसा ! बदला ! आह बदला कितनी भयंकर अमि है। इंधनके अभाव होनेपर ममि शांत हो जाती है । किन्तु प्रतिहिंसा अनि ओह ! वह निरन्तर हृदयमें तीव्र गतिसे प्रज्वलित होती रहती है और प्रतिमण बढ़ती हुई अपने प्रतिद्वंदीके सर्व नाशकी वाट देखती रहती है। - अपमानने पांमुल सेठके हृदयमें तीव्र स्थान कर लिया था। वैभवका नष्ट होना मानव किसी तरह सहन कर लेता है,
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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