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________________ तपस्वी मममा. MARATIOmERammanawwareneKITHAINA RARYAmarnam वह मुझे तीव्र प्रलोभनोंकी मदिरा पिलाकर मनाचारके क्षेत्रमें स्वतंत्रता पूर्वक नाव नवा कर अपने सर्व पतनकी ओर तीव्र गतिसे MAR करा रहा था। मैं उसका गुलाम बमा हुमा अपनी मामलताको बिलकुल भूल गया था। ओह ! मेरी मात्माका इतना घोर पतन ! नहीं ! अब नहीं होगा। मैं मदनके साम्राज्पको इसी समय नष्ट भ्रष्ट करूंगा। इसकी प्रभुता और इसके गर्वको चूर चूर कर दूंगा। बह उठा, उसने उठकर भगवान्के दिव्य चाणों पर अपने मस्तकको डाल दिया, और गद्गद् कंठसे बोला-भगवन् ! मैं महा पतित हूं, मैंने सांसारिक विलास पासनामें अपना जीवन गंवाकर नष्ट कर डाला है। इतना ही नहीं मैंने उन पाप कृत्योंके पीछे कमर बांध ली थी जिनके कटु फलों का स्मरण कर मेरा हृदय कार ठठना है । प्रभो ! भाप भक्तस्मल है, दयासागर हैं, मेरा मल धोनेके लिये भाप ही समर्थ है। मुझ पर दया कीजिए और मेरे जैसे पतितको अपनी शरण में लेकर रक्षा कीजिए, भाप मेरे आत्म सुधारका मार्ग प्रदर्शित कीजिए। दयावत्सल भगवान् नेमिनाथनं गजकुमारके पश्चात्ताप पूर्ण हृदयका करुण क्रन्दन मुना, वे बोले-"कुमार! तूने पापोंके लिए सीव पश्चात्तार कर उनके क्टु फलों को बहुत कुछ कम कर लिया है। पूर्ण पाप फलको कम करने, उन्हें नष्ट करने और अन्तःकरणको सुधारने के लिए प्रायश्चित्तके अतिरिक्त कोई उत्तम उपाय नहीं है । जिस तरह तेन भांच पाकर मैल जल जाता है उसी तरह पश्चात्तापकी तीव जलनसे कठिनसे कठिन पायोंका का नष्ट होनाता है, लेकिन प्रायश्चित हृदयसे होना चाहिए। पाप कृत्यों के लिए हृदय में पूर्ण हानि होना चाहिए । कुमार! तू माने
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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