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________________ कर्म की उपार्जना करलेता है, क्योंकि-जब मति शानादि मैं पुनः २ उपयोग दिया जायगा तव पदार्थों का यथावत् स्वरूप जाना जायगा जिस का परिणाम यह होगा कि- आत्मा ज्ञान-समाधि में निमग्न हो जायगा । समाधि का फल उक्त लिखित स्वाभाविक होता ही है, अतएव स्त्री-भक्त-राज्य-देश-विकथादि छोड़ कर सदैव काल ज्ञान में ही उपयोग लगाना चाहिए, क्योंकि जो अात्मा शान में उपयोग लगाने वाले होते है उनके अज्ञान का क्षय होने से साथ ही क्लेशों का भी क्षय हो जाता है, जैसे-वायु के होने पर ही जल में वुवुदों के उत्पन्न होने की सम्भावना की जा सकती है ठीक तद्वत् क्लेश के क्षय होने से चित्तसमाधि सदा के लिये स्थिरता पकड़ जाती है सो चित्त समाधि के लिये पुनः२ ज्ञान में उपयोग देना चाहिए तथा समाधि के ही माहात्म्य से उक्त कर्म की उपार्जना की जा सकती है। ___ दर्शन-सम्यक्त्व का धारण करना, क्योंकि-यावत्काल सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती तावत्काल संसार के छूटने का उपाय भी नहीं कियाजाता सम्यक्त्व का अर्थ पदार्थों के स्वरूप को ठीक २ जानना ही है तथा देव गुरु और धर्म पर पूर्ण निश्चय करना मिथ्यात्व सम्बन्धी क्रियाओं से पीछे हटजाना इतनाहीनहीं किन्तु सम्यग्दर्शन द्वारा अनेक आत्माओं को संसार पथ से विमुक्त कर मोक्ष पथ में लगादेना तथा यावत्काल-पर्यन्त सम्यक्त्व धारण नहीं किया जायगा तावत्कालपर्यन्त प्राणी संसार चक्र के बन्धन से पृथक् नहीं हो सकता जैसे एक अंक विना यावन्मात्र विंदु होते हैं वे शून्य ही कह जाते हैं ठीक उसी प्रकार सम्यक्त्व के विना यावन्मात्र क्रिया-कलाप है वह मोक्ष-पथ के लिये शून्य रूप है । अतएव सिद्ध हुआ कि सम्यक्त्व का धारण करना आवश्यकीय है यदि एक मुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्व का आत्म-प्रदेशों के साथ स्पर्श होजाए तव आत्मा उत्कृष्टता से देशोनअर्द्धपुद्गल परावर्त करके मोक्ष पासकता है। वा यावन्मात्र आत्मा मुक्त हुए है वे सर्व इसी के माहात्म्य का फल है। सो सम्यक्त्व के शुद्ध पालने से आत्मा तीर्थकर नाम गोत्र की उपार्जना कर लेता है। १० विनय-मति शान १ श्रुतशान २ अवधिज्ञान ३ मनःपर्यवज्ञान ४ और केवल ज्ञान ५ इन पांचों ज्ञानों की विनय भक्ति करना तथा गुरु आदि की विनय करना और अहंन्तादि की आशातना न करना कारण कि-विनय करने से आत्म विशुद्धि होती है और अहंकार के भावों का क्षय हो जाता है जब अहंकार भाव जाता रहा तव आत्मा समाधि के मार्ग में लग जाता है तथा “विनय" शब्द कर्तव्य परायणता का भी वाची है जिसने व्रतों को धारण किया हुआ है उन व्रतों (नियमों) को निरतिचार पालन करना वास्तव में उसी का नाम
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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