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________________ ( १० ) धर्मजीवन व्यतीत करने वाले प्रत्येक प्राणी के हितैषी श्रीभगवान् के प्रतिपादन किये हुए पवित्र सिद्धान्तों कासर्वत्र प्रचार करने वाले धर्मदेव इत्यादि मुनि गुण से युक्त इस प्रकार के धर्म-गुरुओं की भक्ति और गुणोत्कीर्तन करने से तीर्थकर गोत्र की उपार्जना हो जाती है। ५स्थविर-जो मुनि-दीक्षा-श्रुत, आयु,आदि से वृद्ध हैं उन्हीं की स्थविर संज्ञा है वे प्राणी मात्र के हितैषी होने पर फिर धर्म से गिरते हुए प्राणियों को धर्म में स्थिर करते हैं इतना ही नहीं किन्तु गच्छ आदि की स्थिति के नियम भी समयानुकूल वांधते रहते हैं स्वभावादि भी लघु अवस्था होने पर वृद्धों के समान है तथा प्राचार शुद्धि में जिन की विशेष दृष्टि रहती है इस । प्रकार के स्थविरों की भक्ति और गुणोत्कीर्तन द्वारा जीव उक्त कर्म की उपार्जना कर लेता है। बहुश्रुत-अनेक प्रकार के शास्त्रों के पढ़ने वाले स्वमत और परमत के पूर्णवेत्ता तत्त्वाभिलाषी स्वमत में दृढ़ श्रुतविद्या से जिन का श्रात्मा अलंकृत हो रहा है, वे प्रायः सर्वशास्त्रों के पारगामी हैं प्रतिभा के धरने वाले है और गांभीर्यादि गुणों से युक्त है श्रीसंघ में पूज्य हैं वादी मानमर्दन हर्ष और शोक से रहित सर्वप्रकार की शंकाओं के निराकरण करनेवाले इस प्रकार के बहुश्रुत मुलियों की भक्ति और उनके गुण आदि धारण करने से जीव तीर्थकर नाम कर्म की उपार्जना कर लेता है। ७ तपरवी-द्वादश प्रकार के तप करने वाले जो महामुनि हैं अर्थात् षट् प्रकार का जो अनशनादि वाह्य तप हैं और षट् प्रकार के प्रायश्चित्तादि जो अन्तरंग तपःकर्म हैं सो उक्त दोनों प्रकार के तप-कर्म द्वारा अपने आत्मा की विशुद्धि किये जारहे हैं क्योंकि-जिस प्रकार वस्त्र के तन्तुओं में मल के परमाणु प्रवेश कर जाते हैं, ठीक तद्वत् आत्मप्रदेशों पर कर्म-परमाणुओं का सम्बन्ध हो रहा है। फिर जिस प्रकार उस वस्त्र में मल के परमाणु प्रविष्ट हुए हुए हैं वे तप्त और क्षारादि पदार्थों से वस्त्र से पृथक् किये जा सकते हैं ठीक तद्वत् श्रात्मा में जो कर्मों के परमाणुओं का उपचय हो रहा है वह भी तप-कर्म द्वारा श्रात्मा से पृथक् हो जाता है जिस से वस्त्र की नाई जीव भी शुद्ध हो जाता है तथा जिस प्रकार सुवर्ण में मल प्रवेश किया हुआ होता है वह अग्नि आदि पदार्थों से शुद्ध किया जाता है, ठीक तद्वत् तप रूपी अग्नि से जीव शुद्धि को प्राप्त होजाता है, सो जो मुनि उक्त प्रकार आत्म-शुद्धि के लिये तप कर्म करने वाले हैं उनकी भक्ति और अन्तःकरण से. उनके गुणोत्कीर्तन करने से जीव तीर्थकर नाम गोत्र की उपार्जना कर लेता है। ८ अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोग-पुनः पुनः ज्ञान में उपयोग देने से जीव उक्त
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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