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________________ ( १९० ) उत्पन्न हो जावे तो शास्त्रों के तत्त्व को जानने वाले गीतार्थ गुरुओं से निवृत्त कर लेनी चाहिए। अनन्त अर्थ वाले श्रागम किस प्रकार सन्देह युक्त हो सकते हैं ? शास्त्रों में जो वर्णन आए हुए हैं वे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को लेकर ही वर्णित हैं । जब नय और निक्षप का पूर्णतया स्वरूप अन्तःकरण में बैठ जाए तब किसी प्रकार की भी शंका उत्पन्न नहीं हो सकती । यदि किसी प्रकार से भी संशय दूर न हो सके तब मन में यह विश्वास कर लेना चाहिए कि-श्रीजिनेन्द्र भगवान् ने पदार्थों का जो स्वरूप वर्णन किया है वह निस्सन्देह यथार्थ है । क्योंकि-गीतार्थ गुरु का न मिलना बुद्धि का निर्वल होना अथवा लिपि में कोई दोष रह जाना इत्यादि कई कारण हो सकते हैं, जिस से तत्काल संशय दूर नहीं हो सकता । जव सूत्र लिपिवद्ध हुए थे उस समय शास्त्रों का ज्ञान विस्मृत होने लग गया था, सम्भव है कि कोई पाठ लिपिबद्ध करते समय उन प्राचार्यों की स्मृति में अन्य प्रकार से रह गया हो। इसलिये सम्यक्त्व का पहला शङ्का रूप दोष जो कथन किया गया है उस को दूर करना चाहिए। २ाकांक्षा अतिचार-पूर्वपुण्योदय से यदि कोई अधर्मी धनपात्र होकर सुखमय जीवन व्यतीत कर रहा है और लोकदृष्टि में माननीय गिना जाता है तो उसको देख कर इस प्रकार के संकल्प नहीं उत्पन्न करने चाहिएं । जैसेकि-जो धर्म नहीं करते उन का जीवन अच्छा व्यतीत होता रहता है परन्तु हम जो धर्म के करने वाले हैं सदा दुःखों से पीड़ित रहते हैं अतएव धर्म करने से कोई भी लाभ नही, परमतावलम्बियों का धर्म ही सर्वोत्कृष्ट है इत्यादि । इस प्रकार के भाव कदापि उत्पन्न न करने चाहिएं । कारण कि-प्रत्येक आत्मा अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों के फलों को अनुभव करता रहता है तो फिर इस में धर्म का क्या दोष ? यदि किसी व्यक्ति ने पूर्व जन्म में धर्म किया ही नहीं तो फिर सुख फल की आशा किस प्रकार की जा सकती है ? अर्थात् कदापि नहीं । अतएव कर्मों के सिद्धान्त को भली प्रकार जानते हुए धर्म से विमुख न होना चाहिए और नॉही पाप कृत्यों को अन्तःकरण में स्थान देना चाहिए। विदित हो कि-धर्म श्रात्मविकाश करने वाला है। जो प्राणी सुख वा दुःख का अनुभव करते हैं वे सर्व पूर्वोपार्जित पुण्य और पाप कमाँ के फल हैं जिस मत वाले को तुम सुखी देखते हो, क्या उस मतमें दुःखियों का निवास नहीं है ? क्या जैन-मत वाले सर्व दुःखी हैं ? क्या अधर्मात्मा सव सुखी हैं ? कदापि नहीं, यह कोई सृष्टिः वद्ध नियम नहीं है। केवल अपने किये हुए शुभाशुभ कमाँ के फल हैं। इस प्रकार के विचारों से सम्यक्त्व का आकांक्षा नामक अतिचार दूर कर देना चाहिए।
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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