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________________ ( १८६ ) जब उनके मत में आत्मा का ही अभाव माना जाता है तव पुण्य, पाप, आश्रव, सम्वर, बंध, मोक्ष, लोक, परलोक, जगत् और ईश्वर इत्यादि सव बातों का अभाव होजाता है, जिस कारण वे अर्थ और काम के ही उपासक होजाते हैं । आस्तिक लोगों का मुख्योद्देश्य निर्वाणपद की प्राप्ति करना है । क्योंकि—उनके सिद्धान्तानुकूल उक्त तत्त्वों का अस्तिभाव सदा बना रहता है । वास्तव में देखा जाय तो नास्तिक मत की युक्ति श्रास्तिक पक्ष की युक्ति को सहन नहीं कर सकती । इसी वास्ते श्रास्तिकों के चार पुरुषार्थ प्रतिपादन किये गए हैं। जैसे—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष | जब तक संसारावस्था में रहते हैं, तब तक वे धर्म अर्थ और काम के द्वारा अपना निर्वाह करते रहते हैं, परन्तु जब वे संसारावस्था से पृथक् होते हैं तब वे धर्म और मोक्ष के ही उपासक बन जाते हैं । जब वे संसारावस्था में रह हैं तब वे विशेषधर्म के आश्रित होजाते हैं । जैसेकि वे सम्यक्त्वपूर्वक श्रावक के १२ व्रतों को निरतिचार पालन करते रहते हैं । यदि उन श्रात्माओं को विशेष समय उपलब्ध होता है, तब फिर वे श्रावक की ११ पडिमाएँ ( प्रतिज्ञाएँ ) धारण करलेते हैं जो कि -एक प्रकार से जैन - वानप्रस्थ के नियम रूप हैं । सम्यक्त्व के पांच प्रतिचार वर्णन किये गए हैं । सो उन दोषों से रहित होकर ही सम्यक्त्व को शुद्ध पालन करना चाहिए, जैसेकि - शंकाकाक्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशसासंस्तवा सम्यग्दृष्टेरतिचारा इति । (धर्मविन्दु अ ३ सू. १२ ) वृत्ति - इह शंका कांक्षा विचिकित्सा च ज्ञानाद्याचारकथनमिति सूत्रव्याख्या नोक्तलक्षणा एव | अन्यदृष्टीनां सर्वज्ञप्रणीतदर्शनव्यतिरिक्तानां शाक्यकपिलकणादाक्षपादादिमतवर्त्तिनां पाखंडिनां प्रशंसास्तवौ । तत्र "पुण्यभाज एते” सुलव्धमेषाञ्जन्म' दयालय एते, इत्यादि प्रशंसा । संस्तवश्चेह संवासजनितः परिचयः वसनभोजनदानालापादिलक्षणः परिगृह्यते न स्तचरूपः । तथा च लोके प्रतीत एव संपूर्वः स्तोतिः परिचये ॥ संस्तुतेषु प्रसभं भयेष्वित्यादाविवेतिं । ततः शंका च कांक्षा च विचिकित्सा च श्रन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवौ चेति समासः । किमित्याह सम्यग्दृप्रेः सम्यग्दर्शनस्य अतिचारा विराधनाप्रकाराः संपद्यंते शुद्धतत्त्वश्रद्धानवाधाविधायित्वादिति ॥ १२ ॥ भावार्थ- -इस सूत्र में यह कथन किया गया है कि सम्यग्दृष्टि आत्मा को पांच प्रतिचार लगते हैं सो वे दूर करने चाहिएं। जैसेकि - १ शंका - जिन वाणी में कदापि शंका उत्पन्न नहीं करनी चाहिए कारण कि — सर्वज्ञोक्त वाणी में सत्य का लेशमात्र भी नहीं होता । यदि भूगोल, खगोल, श्रायु तथा अवगाहन विषय आदि में किसी प्रकार की शंका
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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