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________________ ( १५१ ) भी उसकी उपेक्षा करने की चेष्टा करनी चाहिए । कारण कि-सांसारिक कर्तव्यों मे भाग लेने से संयम मार्ग में शिथिलता आजाती है। इसलिए पापमय कृत्यों के करने में उपेक्षा करनी ही योग्य है। वस इसे ही उपेक्षा संयम कहते हैं । १३ प्रमार्जना संयम-जिस स्थान पर बैठना हो वा शयन करना हो उस स्थान की यत्न पूर्वक प्रमार्जना करलेनी चाहिए। कारण कि-प्रमार्जना करने से ही जीवरक्षा भले प्रकार की जा सकेगी। १४ परिष्ठापना संयम-जो वस्तु परिष्ठापन करने (गिराने ) योग्य हो जैसे-मल मूत्रादि तो उन पदार्थों को शुद्ध और निर्दोष भूमि में परिष्ठापन (गिरना)करना चाहिए जिससे फिर असंयम न होजावे । १५ मनःसंयम-मन में किसी जीव के प्रतिकूल वा हानि करने वाले भाव न उत्पन्न करने चाहिएं अपितु मनमें सदैव, धार्मिक भाव ही उत्पन्न करने चाहिएं । इसी का नाम मनःसंयम है॥ १६ वाक्संयम-वचनयोग को वश करना, तथा कुशल वचन मुख से उच्चारण करना । जिनके बोलने से किसी जीव को पीड़ा उत्पन्न होती हो उस प्रकार के वचनों का निरोध करना, इसी का नाम वाक्-संयम है । १७ काय-संयम-गमनागमनादि क्रियाएं फिर विना यत्न न करना, इस का नाम काय-संयम है । जव मुनि ध्यानावस्था में लवलीन रहेगा तव मन, वचन और काय-संयम भली प्रकार से साधन किया जा सकेगा। जिस के अन्तिम फलरूप निर्वाणपद की प्राप्ति उस संयमी आत्मा को अवश्यमेव हो जायगी क्योंकि-जव उक्त प्रकार से संयम आराधन किया जायगा तव मुनि अपने धर्म में अवश्य प्रविष्ट हो जायगा। __ अव प्रश्न यह उपस्थित होता है कि-जव मुनि अपने धर्म में प्रविष्ट होता है, तब मुनि का निज धर्म क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है कि-शास्त्रकारों ने मुनिका धर्मदश प्रकार से प्रतिपादन किया है। तथाच पाठः दसविहे समण धम्मे प. तं०-खंती १ मुत्ती २ अज्जवे ३ मद्दवे ४ लाघवे ५ सच्चे ६ संजमे ७ तवे ८ चियाए ६ वंभचरवासे १०॥ . समवायागसूत्र समवायस्थान १० ॥ अर्थ-प्रत्येक व्यक्ति के कहे हुए दुर्वचनों का सहन करना, फिर उन पर मन से भी क्रोध के भाव उत्पन्न न करने, और इस बात पर सदैव विचार करते रहना कि-जिस प्रकार शब्दों का कर्णेन्द्रिय में प्रविष्ट होने का स्वभाव है उसी प्रकार इन शब्दों के प्रहार को सहन करने की शक्ति मुझ में होनी चाहिए इत्यादि भावनाओं द्वारा क्षमा धारण करना ॥१॥ फिर वाह्याभ्यन्तर से परिग्रह का त्याग करना अर्थात् लोभ का परित्याग करना ॥२॥ मन, वचन और काय की कुटिलता का परित्याग करके ऋजु (सरल) भाव धारण
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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