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________________ ( १५० ) उपादेय पदार्थों का सम्यक्तया पालन किया जा सकता है जिसका अंतिम फल मोक्षप्राप्ति है क्योंकि-कर्म क्षय का फल मोक्ष है। कर्म का मोक्ष नहीं है। इसलिए मुनिको सप्तदश प्रकार के संयम में दत्तचित्त होना चाहिए। . "सम्” उपसर्ग और "यमु" "उपरमे" धातु से "अ" प्रत्ययान्त संयम शब्द बना हुआ है, जिसका अर्थ है-झानपूर्वक सांसारिक पदार्थों से निवृत्ति भाव । इस प्रकार समान अर्थ होने पर भी शास्त्रकर्ता ने व्यवहारनय के आश्रित होकर संयम शब्द १७ प्रकार के अंकों में व्यवहृत किया है अर्थात् संयम के १७ भेद हैं जैसेकि "सत्तरसविहे संजमे प. तं०-पुटवीकाय संजमे अप्काय संजमे तेउकाय संजमे वाउकाय संजमे वणस्सइकाय संजमे बेइंदिय संजमे तेइंदिन संजमे चउरिन्दिा संजमे पंचिंदिय संजमे अजीवकाय संजमे पेहासंजमे उहा संजमे पमज्जणा संजमे परिठावणिया संजमे मण संजमे वह संजमे काय संजमे ।। समवायांग सूत्र स्थान सू. १७ ॥ अर्थ-श्री भगवान् महावीर स्वामी ने १७ प्रकार से संयम प्रतिपादन किया है । जैसेकि-पृथ्वी-काय १, जल-काय २. तेजः-काय ३, वायु काय ४, वनस्पति-काय ५, द्वीन्द्रियजीव ६, त्रीन्द्रियजीव ७, चतुरिन्द्रियजीवन, और पञ्चेद्रियजीव ६ इन नव प्रकार के जीवों की हिंसामन, वचन और काय द्वारा श्राप नहीं करे, औरों से भी न करावे वल्कि जो हिंसा करते हैं उनकी अनुमोदना भी न करे। इसी को नव प्रकार का संयम कहा जाता है। किन्तु हिंसा के भी तीन भेद हैं जैसेकि सरंभ, समारंभ और आरंभ । मन से किसी जीव के मारने के भावों को सरंभ कहते हैं। किसी प्राणी के प्राणों को पीड़ा देने का नाम समारंभ है। प्राणों से विमुक्त ही कर दिया जाय तो उसी को आरंभ कहते हैं । उक्त तीनों प्रकार से जीव हिंसा का परित्याग करदेवे । तथा१० अजीव संयम-जिस अजीव वस्तु के रखने से असंयम उत्पन्न होता हो उन पदार्थों को न रखना चाहिए जैसेकि-सुवर्ण, मोती, प्रमुख धातु इत्यादि पदार्थों के रखने से संयम को कलंक लगता है अतः इनका सर्वथा परित्याग करना ही श्रेष्ठ है । तथा जो धर्म साधन के लिये वस्त्र पात्र वा पुस्तक आदि उपकरण रखे जाते हैं, उनकी यत्नपूर्वक प्रतिलेखना वा प्रमार्जना करनी चाहिए क्योंकि इन से संयम वढ़ता तथा चमकता है। १९ प्रेक्षासंयम आंखों से देखकर गमनादि क्रियाएँ करनी चाहिए तथा शयनादि क्रियाएं भी विना यत्न से न करनी चाहिएं । १२ उपेक्षासंयम-संयम क्रियाओं से वाहवृत्तियों को निवारण करने के लिये प्रयत्न करना चाहिए, यदिशक्ति से बाह्यकार्य है तो
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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