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________________ भरत का भारत जयति भरतः श्रीमानिक्ष्वाकुवंशशिखामणि। -सुभद्रा नाटक, ३३२५ 'यह मुविदित है कि जैन धर्म की परम्पग अत्यन्त प्राचीन है। भगवान महावीर को अन्तिम तीर्थङ्कर थे। भगवान महावीर में पूर्व २३ तीर्थकर और हो चुके थे। उन्ही में भगवान ऋषभदेव प्रथम नीर्थकर थे, जिसके कारण उन्हें आदिनाथ यहा जाता है। जैन कला में उनका अंकन घोर तपश्चर्या की मत्रा में मिलता। ऋषभनाथ के ग्ति का उल्लेख श्रीमद्भागवत में भी विस्तार में आता है और यह मोचने पर वाध्य होना पड़ता है कि टमका कारण क्या रहा होगा ? भागवा में ही दम बात का उल्लेख है कि महायोगी भग्न ऋषभदेव के शतावों में ज्योट थे और उन्ही में यह देश भाग्नवर्ग कहलाया।' म विषय में यह बात पटता गं जान लेनी चाहिए कि पुराणों में भारतवर्ष के नाम का मंबंध नाभि के पात्र और कपन के पुत्र भग्न में है (वाय पुगण १५२) । भागवन में भग्न के गणों की प्रशस्ति करने हग लिया--'गर्जात भग्न क. पवित्र गण और कर्मों की भकजन भी प्रशंमा करते है। उनका यह ग्वि बड़ा कल्याणकार्ग, आय और धन की वद्धि करने वाला, लोक में मुयश बढ़ाने वाला और अन्त में स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति करने वाला है। जो पुरुप इम मुनता या मनाता है और इमका अभिनन्दन करना है. उसकी मम्पूर्ण कामनाणं म्वयं पूर्ण हो जाती है, दूमगे गे उमे कुछ भी नहीं मांगना पड़ता। वाकुवंश के मकुटमणि भग्न चक्रवर्ती ने प्रजाओं का बहुत अच्छी नह भरणपोपण किया, इसलिए वे भग्न कहलाए । १-येषां जन महायोगी परतो ज्येष्ठः बेष्ठगणाचामोत् । पेने मारतमिति परिन्ति ।।--श्रीमदभागवन ! :-माकंगरंप पुगण : एक अध्ययन-हा. वासुदेवशरण अग्रवाल ३-भागवत ५॥१५॥ २१
SR No.010276
Book TitleJain Shasan ka Dhvaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaykishan Prasad Khandelwal
PublisherVeer Nirvan Bharti Merath
Publication Year
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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