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________________ आदि ऋषभ जप मंगलं नित्यशुभमंगलम् । जय बिमलगुणनिलय पुग्वेव! ते॥ जिनवृषभ बनानवन्दितबरण! मन्दारकुन्वसितकोतिधर ! ते । इनुकरणि कोटि जित विशवतनु किरण ! मनरगिरीन निमबर घोर ! ते ॥ 'जैन लोग अपने धर्म के प्रचारक मिडों को 'तीपंधर' कहते हैं. जिनमें आद्य तीथंकर ऋषभदेव थे। इनकी ऐतिहासिकता के विषय में पुगणों के आधार पर मशय नहीं किया जा मकता। श्रीमद् भागवत में कई अध्याय (म्बन्ध ५. अ० ४-६) ऋषभदेव के वर्णन में लगाये गये हैं। ये मनुवंशी महीपति नाभि तथा महागजी मम्देवी के पत्र ५। इनकी विजय-वैजयन्ती अखिल महीमण्डल के ऊपर फहगती थी। इनके मो पुत्रों में मे मबगे ज्येष्ठ थे महाराज भग्न, जो भग्न के नाम में अपनी अलौकिक आध्यात्मिकता के कारण प्रमिद थे और जिनके नाम में प्रथम अधीश्वर होने के हेतु हमाग देश 'भारतवर्ष के नाम में विख्यात है।' पं० बलदेव उपाध्याय, भाग्नीय दर्शन, सप्तम मम्करण, प०८८ 'जैन परम्परा ऋषभदेव को जनधर्म का संस्थापक बनाती है, जो अनेक मदी पूर्व हो चके हैं। इस विषय के प्रमाण विद्यमान हैं कि ईम्बी मन में एक शताब्दी पूवं लांग प्रथम तीर्थर ऋषभदेव की पूजा करते थे। इसमें कोई मन्देह नहीं है कि पाश्र्वनाथ नगा वर्धमान के पूर्व भी जैन धर्म विद्यमान था । यजुर्वेद में ऋषभनाथ, अजितनाथ तथा अरिष्टनेमि-इन तीन नीगं का उल्लेख पाया जाता है। भागवन पुगण में "ऋषभदेव जैनधर्म के संस्थापक थे हम विचार का ममर्थन होना है।" "मिन्धु घाटी की अनेक मुद्राओं में अंकिन न केवल बैठी हुई देवमनियां योगमुद्रा में हैं और उम मुदर अतीत में मिन्ध घाटी में योग मार्ग के प्रचार को मिद करनी है बल्कि खड्गामन देवमनियां भी योग की कायोन्मगं मुद्रा में हैं। और ये कार्यान्मगं ध्यानमुद्रा विशिष्टतया जैन है। आदिपुगण अध्याय १८ में इम कार्यान्मगं मुद्रा का उल्लेख ऋषभ या वृषभदेव के तपश्चरण के मंबन्ध में बहुधा हुआ है। जैन ऋषभ की इम कायमगं मुद्रा में खड्गामन प्राचीन मूर्तियां ईस्वी मन के प्रारम्भकाल की मिलती है।" 1. सं. राधाकृष्णन्, इन्डियन, फिलामफी, १० ॥ 2. Sind Five Thousand Years Ago-R. P. Chanda, Modern Review, Aug,1932, p. 155.
SR No.010276
Book TitleJain Shasan ka Dhvaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaykishan Prasad Khandelwal
PublisherVeer Nirvan Bharti Merath
Publication Year
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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