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________________ सर्वोदय - भावना का विस्तार सब कुछ हो, तथा शूद्र का बेटा शूद्र ही हो, चाहे त्याग और चारित्र्य की दृष्टि से उसका जीवन दूसरो के लिए अनुकरणीय बना हुआ है। जैन-सस्कृति तो गुरण पूजक है । वह क्षत्रिय, ऋषभ, महावीर श्रादि तीर्थंकरो, ब्राह्मण गौतम आदि गणधरो, वैश्य धन्ना, शालिभद्र महान् त्यागियो श्रौर शूद्र (भगी) हरिकेशी प्रादि मुनिवरो की सबकी हृदय से प्राराधना और उपानना करने का प्रादेश देती हैं । इसलिए नही कि वे क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, या शूद्र घे, वल्कि इसलिए कि वे गुणधारी थे, उन्होने निज का जीवन विकसित कर अन्य प्राणियो के जीवन विकास की ओर अपनी सभी शक्तियो को लगाया | जैन-सस्कृति के सामने वर्ण का कतई दृष्टिकोण नही है, उसके सामने तो प्रात्मिक विकास की महिमा है । प्राज समाज के हरिजन - उद्धार की एक समस्या है । महात्मा गाधी ने इस क्षेत्र मे महान् आन्दोलन किया है और अब तो भारतीय सविधान द्वारा छुआछूत को घपराध करार दे दिया गया है । किन्तु यह समस्या श्रद भी समस्या है और जब तक विचारों मे जोरदार प्रान्दोलन नही होता, यह समस्या हल नही हो सकती । समाज मे हरिजन यदि अपना काम करना छोड दें तो तत्काल अन्य वर्षो की तबियत ठिकाने श्रा जाय । भारत मे ही मानवता के क्रूर अपमान का दृश्य इस रूप मे हमे देखने को मिलता है । कुत्तो को चूम-चूमकर प्यार किया जाता है, किन्तु भूख और रोग मे सड़ते हुए इस मानव की घोर रूढिवादी सवर्ण देखना भी नही चाहता । धूलियागंज मे मुझे एक भाई ने पूछा कि 'हरिजन का हमारे मन्दिर मे प्रवेश न हो इसके लिए हमारे एक मुनि (दिगम्बर) ने अनशन करके प्राण त्याग दिये, इस विषय मे छापका क्या विचार है ? ' मैंने कहा—“जैन दर्शन में तो जातिवाद को कही महत्व नही दिया गया है, फिर छुवाछूत का उसके सामने विचार ही नही उठना प्रत. शुद्ध जीवन व्यतीत करने वाले हरिजन के लिए भेदभाव का कोई प्रश्न नही हो सकता । जन-दर्शन विगाल घोर व्यापक विचारधारा लेकर चलता है । प्रत्येक
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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