SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जन-सस्कृति का राजमार्ग इस प्राथमिक श्रेणी का भी पालन आपको पूरे तौर पर करना हो तो पाप मे मानवता का कितना ऊँचा दृष्टिकोण विकसित होना चाहिए। इसके अलावा यह जो कुछ मैने अभी बताया है, वह तो अहिह्मा का नकारात्मक पहलू मात्र है कि हिमा मत करो, किन्तु जैनवमं मे इसके स्वीकारात्मक पहलू का भी विशद वर्णन है । अहिसा, का स्वीकारात्मक पहलू है कि प्राणो का रक्षण करो। पहली मीढी तो यह सही है कि अपनी ओर से किन्ही भी प्राणो को कप्ट मत दो। लेकिन क्या ससार और समाज मे रहते हुए विवेकशील प्राणियो का इस नकारात्मक रुख से ही अपना कर्तव्य समाप्त हो जाता है ? नहीं होता, क्योकि विभिन्न इन्द्रियो के प्राणियो मे विवेक, सामर्थ्य वा शक्ति की दृष्टि से काफी विभेद होता है और कम विवेक व सामर्थ्य के प्राणियो को अधिक विवेक व सामर्थ्य के प्राणियो की सहायता की अपेक्षा होती है तथा समान विवेक व सामर्थ्य के प्राणियो को भी अपने जीवन-सरक्षण हेतु परस्पर सहायता की भी अपेक्षा होती है । आपके सासारिक जीवन को ही देखिए-एक हो व्यक्ति अपने जीवन-निर्वाह के सारे साधन स्वय नहीं रच सकता है । किसान धान पंदा करता है तो कोई उसे इधर-से-उधर पहुंचाता है और फिर वह रसोईघर मे विविव क्रियायो द्वारा खाद्य-योग्य बनता है। इसी प्रकार अन्य प्रदार्थों की भी अवस्था है । तात्पर्य यह कि समाज में सबके पारस्परिक सहयोग से प्रत्येक के जीवन का अनुपालन व सरक्षण होता है । तो इसी दृष्टिकोण की बारीकियो पर अहिसा का स्वीकारात्मक पहलू जाता है कि प्राणियो को उनके जीवन के अनुपालन व सरक्षण में सद्भाव से सहायता करो, जीगो और जीने दो। इस पहलू से सहानुभूति, दया, करुणा, सहयोग प्रादि सद्गुणो की जीवन मे पुष्टि होती है और इसी पुष्टि से मानवता का विकास होता है । हिमा के निवृत्ति-धर्म से भी अहिंसा का यह प्रत्ति-धर्म अधिक ऊँचा माना गया है । एक व्यक्ति ठ नहीं योलता है, उससे ही उसका काम पूरा नहीं हो जाता। यह तो उसका नकारात्मक काम हुना किन्तु सत्य की साधना उसकी स्वीकारात्मक तब होगी जबकि
SR No.010275
Book TitleJain Sanskruti ka Rajmarg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshlal Acharya, Shantichand Mehta
PublisherGanesh Smruti Granthmala Bikaner
Publication Year1964
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy