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________________ जैन पूजांजलि निश्चयनय भूतार्थ आश्रय उपादेय है । अभूतार्थ व्यवहार कथन तो अरे हेय है ।। तीन मास छमस्थ रहे प्रभु उग्र तपस्या में हो लोन । प्रतिमा योग धार चंदा प्रभु शुक्ल ध्यान में हुए स्वलीन॥ ध्यान अग्नि से सठ कर्म प्रकृतियों का बल नाश किया। फागुन कृष्ण सप्तमी के दिन केवल ज्ञान प्रकाश लिया । ॐ ह्रीं फाल्गुन कृष्ण सप्त्यां केवल ज्ञान मंडिताय श्री चदप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्यम नि० स्वाहा।। शेष प्रकृति पच्चासी का भी अन्त समय अवसान किया। फागुन शुक्ल सप्तमी के दिन प्रभु ने पद निर्वाण लिया ॥ ललित कूट सम्मेद शिखर से चंदा प्रभु जिन मुक्त हुए। ऊर्ध्व गमन कर सिद्ध लोक में मुक्ति रमा से युक्त हुए । ॐ ह्रीं फाल्गुन शुक्ल सप्त्यां मोक्ष मंगल प्राप्ताये चदप्रभ जिनेन्द्राय अर्धम नि० स्वाहा । (जयमाला) चंद्र चिन्ह चित्रित चरण चंद्रनाथ चित धार ॥ चितामणि श्री चद्रप्रभ चंद्रामृत दातार ॥ चंद्रपुरी के न्यायवान श्री महासेन राजा बलवान । देवि लक्ष्मणा रानी उर से जन्मे गंद्रनाथ भगवान ॥ इन्द्रशचो सुर किन्नर यक्ष सभी ने गाए मंगलगान । तीर्थङ्कर का जन्म जानकर धरती में भी आए प्राण ।। बड़े हए प्रभ राजकाज में न्याय पूर्वक लीन हुए। जग के भौतिक भोग भोगते सिंहासन पासीन हुए ॥ इक दिन नभ में बिजली चमकी, नष्ट हुई तो किया विचार । नाशवान पर्याय जान छाया तत्क्षण वैराग्य अपार ॥ वन सर्वार्थ नागतरु नीचे परिजन परिकर धन सब त्याग । पंच मुष्टि से केश लोचकर किया महाव्रत से अनुराग ॥
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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