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________________ जैन पूजांजलि [६५ देह अपावन जड़ पुदगल है तू चेतन चिद्रू पी । गुद्धबुद्ध अविरुद्ध निरंजन नित्य अनप अरूपी ।। ४ जयमाला x परम श्रेष्ठ पावन परमेष्ठी पुरुषोत्तम प्रभु परमानंद । परम ध्यानरत परमब्रह्ममय प्रशान्तात्मा पद्मानंद ।। जय जय पद्मनाथ तीर्थङ्कर जय जय जय कल्याण मयी। नित्य निरंजन जनमन रंजन प्रभु अनंत गुण ज्ञान मयी। राजपाट प्रतुलित वैभव को तुमने क्षण में ठकराया। निज स्वभाव का अवलंबन ले परम शुद्ध पद को पाया। भव्य जनों को समवशरण में वस्तुतत्त्व विज्ञान दिया। चिदानंद चैतन्य प्रात्मा परमात्मा का ज्ञान दिया । गणधर एक शतक ग्यारह थे मुख्य वज्रचामर ऋषिवर । प्रमुख रात्रिषेणा सुमार्या श्रोता पशुनर सुर मुनिवर ॥ सात तत्त्व छह द्रव्य बताए मोक्षमार्ग संदेश दिया। तीन लोक के भूले भटके जीवों को उपदेश दिया । निःशंकादिक अष्ट अंग सम्यक् दर्शन के बतलाए । अप्ट प्रकार ज्ञान सम्यक बिन मोक्षमार्ग ना मिलपाए । तेरह विधि सम्यक् चारित का सत्स्वरूप है दिखलाया। रत्नत्रय हो पावन शिव पथ सिद्ध स्वपद को दर्शाया ॥ हे प्रभु यह उपदेश ग्रहणकर मैं निज का कल्याण करू । निज स्वरूप को सहज प्राप्ति कर पद निर्गथ महान वरू॥ इप्ट अनिष्ट संयोगों में मैं कभी न हर्ष विषाद करू। साम्यभाव धर उर अंतर में भव का वाद विवाद हरू ॥ तीन लोक में सार स्वयं के आत्मद्रव्य का भान कह। पर पदार्थ की ममता त्यागं सखमय भेद विज्ञान करूं।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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