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________________ जैन पूजांजलि [३१ ---- संयम तप वैराग्य न जागा तो फिर तत्त्व मनन कैसा। निज आतम का भानु न जागा तो फिर निज चितन कैसा ॥ - . --- --- एक भूल कर्मों की सङ्गति भव वन में उलझा रही । अग्नि लौह की सङ्गति करके घन को चोटें खा रही निविकल्प. __ ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धियादि षोडश कारणेभ्यो अष्ट कर्म विध्वंसनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।। निज स्वभाव बिन हुई सदा ही अष्ट कर्म को जीत हो । महा मोक्ष फल पाने का पुरुषार्थ किया विपरीत हो । निविल्प ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धियादि षोडश कारणेभ्यो मोक्ष फल प्राप्तये फलम् । जल फलादि वसु द्रव्य अर्घ का अर्थ कभी आया नहीं। अविचल अविनश्वर अनर्घ पद इसीलिये पाया नहीं ॥निविकल्प. ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धियादि षोडश कारणेभ्यो अनर्घ पद प्राप्ताये अर्घम् । 8 जयमाला ४ भव्य भावना षोडश कारण विमल मुक्ति निर्वाण पथ । तीर्थकर पदवी पाने का द्रुत गतिवान प्रयाण रथ ॥ रागादिक मिथ्यात्व रहित समकित हो निज को प्रीतिमय। दोष रहित दर्शन विशुद्धि भावना मुक्ति सङ्गीतमय ॥ मन वच काया शुद्धिपूर्वक रत्नत्रय पाराध लें। तप का आदर परम विनय सम्पन्न भावना साध लें। पंच व्रत सहित शील स्वगुण परिपूर्ण शीलमय आचरण । निरतिचार भावना शील व्रत दोष हीन अशरण शरण ॥ शास्त्र पठन गुरु नमन पाठ उपदेश स्तवन ध्यानमय । दो अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना हृदय में ज्ञानमय ॥ मित्र भ्रात पत्नी सुत प्रादिक और विषय संसार के । इनमे पूर्ण विरक्ति रखें संवेग भावना धार के ॥ हम उत्तम मध्यम जघन्य सत् पात्रों को पहिचान ले। चार दान दे नित्य शक्तितस्त्याग भावना जान लें।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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