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________________ जैन पूजांजलि जिनदेव की पहचान से अपनी आत्मा की पहिचान होती है । ढाई द्वीप में पंचमेरु हैं तोनों लोकों में अति ख्यात । मेरु सुदर्शन, विजय, अचल, मंदर विद्युन्माली विख्यात ॥ एक एक में हैं बत्तीस विदेह क्षेत्र प्रतिशय सुन्दर । एक शतक अरु साठ क्षेत्र हैं, चौथा काल जहां सुखकर ।। पाँच भरत प्ररु पंच ऐरावत कर्म भूमियाँ दस गिनकर । एक साथ हो सकते हैं तीर्थकर एक शतक किन्तु न्यूनतम बोस तीर्थकर विदेह में होते हैं । विद्यमान सर्वज्ञ जिनेश्वर होते हैं । सत्तर ॥ सदा शाश्वत एक मेरु के चार विदेहों में रहते तीर्थकर चार । बीस विदेहों में तीर्थकर बीस सदा ही मङ्गलकार ॥ कोटि पूर्व की श्रायु पूर्ण कर होते पूर्ण सिद्ध भगवान् । तभी दूसरे इसी नाम के होते हैं अरहन्त 'महान् ॥ श्री जिनदेव महा मङ्गलमय वीतराग सर्वज्ञ प्रधान । भक्ति भाव से पूजन करके मैं चाहूँ अपना कल्याण ॥ विरहमान श्री बोस जिनेश्वर भाव सहित गुण गान करूँ । जो विदेह में विद्यमान हैं उनका जय जय गान करूं ॥ सीमन्धर को वन्दन करके मैं अनादि मिथ्यात्व हरू । जुगमन्धर की पूजन करके समकित अङ्गीकार करूँ ॥ १६] श्री बाहु को सुमिरण करके अविरति हर व्रत ग्रहण करूं । श्री सुबाहु पद प्रर्चन करके तेरह विधि चारित्र धरूं ॥ प्रभु सुजात के चरण पूजकर पंच प्रमाद अभाव करूँ । देव स्वयंप्रभ को प्रणाम कर दुखमय सर्व विभाव हरू ॥ ऋषभानन की स्तुति करके योग कषाय निवृति करूँ । पूज्य अनन्त वीर्य पद वन्दू पथ निर्ग्रन्थ प्रवृत्ति करूं ॥
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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