SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन पूजांजलि ज्ञान चक्षु, को खोल देख तेरा स्वभाव दुख रूप नहीं । तीन काल में एक समय भी राग भाव सुख रूप नहीं ॥ मात पिता को सौंप इन्द्र करता है नाटक नृत्य महान । परम जन्म कल्याण महोत्सव पर होता है जय जयगान ॥ ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र जन्म कल्याणकेभ्यो अर्धम नि० । श्री जिन तप कल्याण की महिमा अपरम्पार । तप संयम की हो रही पावन जय जयकार ॥ कुछ निमित पा जब प्रभु के मन में आता वैराग्य अपार । भव्य भावना द्वादश भाते तजते राजपाट संसार | होते धन्य लौकान्तिक ब्रह्मर्षि एक भव अवतारी प्रभु वैराग्य सुदृढ़ ६. रने को कहते धन्य इन्द्रादिक प्रभु को शिविका पर ले जाते बाहर महाव्रती हो केश लोंचकर लय होते निज इन केशों को इन्द्र प्रवाहित क्षीरोदधि में तप कल्याण महोत्सव तप की विमल भावना ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र तप कल्याणकेभ्यो अर्धम् नि० । परम ज्ञान कल्याण की महिमा अपरम्पार । स्वपद प्रकाशक आत्म में झलक रहा संसार ॥ क्षपक श्रेणि चढ़ शुक्ल ध्यान से गुणस्थान बारहवां पा । चार घातिया कर्म नाश कर गुण स्थान तेरहवाँ पा ॥ केवल ज्ञान प्रगट होते ही होती परमोदारिक देह । अष्टा दश दोषों से विरहित छयालीस गुरण मंडित नेह ॥ समवशरण की रचना होती होते अतिशय देवोपम । शत इन्द्रों के द्वारा वंदित प्रभु की दिव्यध्वनि खिरती है सब जीवों का होता है परम ज्ञान कल्याण महोत्सव पर जिन प्रभु का ही यश गान ॥ छवि प्रति सुन्दरतम ॥ कल्याण । ॐ ह्री श्री जिनेन्द्र ज्ञान कल्याणकेभ्यो अर्धम नि० । · [१८५ पुलकित । हर्षित ॥ वन में में ॥ चिंतन 1 करता है । भरता है ॥
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy