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________________ १८४] जैन पूजांजलि परम शद्ध निश्चय नय का जो विषय भूत है शुद्धातम । परम भाव ग्राही द्रव्याथिक नयको विषय वस्तु आतम ।। जिन तीर्थङ्कर के बतलाए रत्नत्रय को वरण कह। गर्भ जन्म तप ज्ञान मोक्ष पांचों कल्याणक नमन करू॥ ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र पंच कल्याणकेभ्यो अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घ्यम् नि । श्री पंच कल्याणक श्री जिन गर्भ कल्याण की महिमा अपरम्पार । रत्नों की बौछार हो घर घर मङ्गल चार ॥ गर्भ पूर्व छह मास जन्म तक नित नूतन मंगल होते। नव बारह योजन नगरी रच इन्द्र महा हर्षित होते ॥ गर्भ दिवस जिन माता को देखते हैं सोलह स्वप्न महान । बैल,सिंह, माला, लक्ष्मी, गज, रवि, शशि,सिंहासन,छविमान ।। मीन युगल, दो कलश, सरोवर, सरविमान, नागेन्द्र विमान। रत्न राशि, निर्ध मअग्नि सागर लहराता अतुल महान ।। स्वप्न फलों को सुन के हर्षित, होता है अनुपम प्रानंद । धन्य गर्भ कल्याण, देवियां सेवा करती हैं सानंद ॥ ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र पच कल्याणकेभ्यो अर्घम, निर्वपामीति स्वाहा । श्री जिन जन्म कल्याण की महिमा अपरम्पार । तीनों लोकों में हुआ प्रभु का जय जयकार ॥ जन्म समय तीनों लोकों में होता है प्रानंद अपार । सभी जीव अन्तर्मुहूर्त को पाते अति साता सुखकार ।। इन्द्र शची ऐरावत पर चढ़ धूम मचाते पाते हैं। जिन प्रभु का अभिषेक मेरु पर्वत के शिखर रचाते हैं। क्षीरोदधि से एक सहस्त्र अरु प्रष्ट कलश सुर भरते हैं। स्वर्ण कलश शुभ इन्द्र भाव से प्रभु मस्तक पर करते हैं।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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