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________________ १३८] जैन पूजांजलि चक्रवर्ती इन्द्र नारायण नहीं जीवित रहे हैं । समय जिसका आगया वे एक ही पल में ढहे हैं ।। २-"दोण्ह विणणाय मणियं जाणई" जो पक्षातिकान्त होता। चित्स्वरूप का अनुभव करता सकल कर्म मल को खोता॥ ज्ञानी ज्ञानस्वरूप छोड़कर जब अज्ञान रूप होता । तब अज्ञानी कहलाता है पुद्गल बन्ध रूप होता ॥ ३-"जह विस भुव भुज्जतोवेज्जो" मरण नहीं पा सकताहै। ज्ञानी पुद्गल कर्म उदय को भोगे बन्ध न करता है । मुनि अथवा गृहस्थ कोई भी मोक्ष मार्ग है कभी नहीं । सम्यक् दर्शन ज्ञान चरित ही मोक्ष मार्ग है सही सही ॥ मुनि अथवा गृहस्थ के लिंगों में जो ममता करता है । मोक्ष मार्ग तो बहुत दूर भव अटवी में ही भ्रमता है ।। प्रतिक्रमण प्रतिसरण प्रादि आठों प्रकार के हैं विष कुम्भ। इनसे जो विपरीत वही है मोक्ष मार्ग के अमृत कुम्भ ॥ पुण्य भाव को भो तो इच्छा ज्ञानी कभी नहीं करता । पर भावों से अरति सदा है निज का ही कर्ता धर्ता ॥ कोई कर्म किसी को भी सुख दुख देने में है असमर्थ । जीव स्वयं ही अपने सुख दुख का निर्माता स्वयं समर्थ ॥ क्रोध, मान, माया, लोभादिक नहींनीव के किचित् मात्र । रूप, गंध, रस, स्पर्शशब्द भी नहीं जीव के किंचितमात्र।। देह संहनन संस्थान भी नहीं जीव के किचित्मात्र । राग द्वेष मोहादि भाव भी नहीं जीव के किंचित्मात्र । सर्व भाव से भिन्न त्रिकाली पूर्ण ज्ञानमय ज्ञायक मात्र । नित्य, प्रौव्य,चिद्रूप, निरंजन,दर्शन, ज्ञानमयो चिन्मात्र॥ (२) स. सा. १४३-दोनों ही नयों के कथन को मान जानता है । (३) स. सा. १९५-जिस प्रकार वैद्य पुरुष विष को भोगता, खाता हुआ भी...
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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