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________________ जैन पूर्जाजलि [१३७ देह तो अपनी नहीं है देह से फिर मोह कैसा । जड़ अचेतन रूप पुद्गल द्रव्य से व्यामोह कैसा ॥ उत्तम क्षमा धर्म उर धारू पद अनर्घ पाकर मानूं । पर द्रव्यों से दृष्टि हटाऊँ निज स्वरूप को पहचान ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा धर्मागाय अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घम् नि स्वाहा । जयमाला 8 उत्तम क्षमा स्वधर्म को वन्दन कर त्रिकाल । नाश दोष पच्चीस सब काटूं भव जञ्जाल ॥ सोलह कारण पुष्पांजलि दश लक्षण रत्नत्रय वतपूर्ण । इनके सम्यक् पालन से हो जाते हैं वसुकर्म विपूर्ण ॥ भाद्र मास में सोलह कारण तीस दिवस तक होते हैं । शुक्ल पक्ष के दश लक्षण पंचम से दस दिन होते हैं । पुष्पांजलि दिन पांच पंचमी से नवमी तक होते हैं । पावन रत्नत्रय व्रत अन्तिम तीन दिवस के होते है । आश्विन कृष्णा एकम् उत्सव क्षमावणी का होता है । उत्तम क्षमा धार उर श्रावक मोक्ष मार्ग को जोता है ॥ भाद्र मास अरु माघ मास अरु चैत्र मास में आते हैं। तीन बार प्रा पर्व राज जिनवर सन्देश सुनाते हैं । १-"जीवे कम्मं बद्ध पुट्ठ" यह तो है व्यवहार कथन । है प्रबद्ध अपृष्ट कर्म से निश्चय नय का यही कथन ॥ जीव देह को एक बताना यह है नय व्यवहार प्ररे । जीव देह तो पृथक् पृथक हैं निश्चय नय कह रहा अरे । निश्चय नय का विषय छोड़ व्यवहार माहि करते वर्तन । उनको मोक्ष नहीं हो सकता और न ही सम्यकदर्शन । (१) स. सा. १४१-जीव कर्म से बंधा है तथा स्पर्शित है।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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