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________________ ३४ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल है । कार्माण-वर्गणा से कार्माण शरीर बनता है । आहार-वर्गणा से श्रदारिक, वैक्रिय, आहारिक शरीर तथा प्राण- प्रपान वनता है । भाषा वर्गणा से वचन बनता है । मनो वर्गणा से मन बनता है । तेजस - वर्गणा से तेजस शरीर बनता है । इस तरह पुद्गल जीव द्वारा ग्रहीत होकर ससारी जीव का चार प्रकार का उपकार करता है अर्थात् ससारी जीव के शरीर, वचन, मन और प्राणापान रूप में परिणत होकर जीव के काम आता है, अत उपकार करता है। इस प्रकार शरीरादि रूप में परिणत होकर पुद्गल चार प्रकार से उपग्रह के रूप में जीव का और भी उपकार करता है । चार उपग्रह इस प्रकार है -सुख उपग्रह, दुख उपग्रह, जीवित उपग्रह और मरण उपग्रह । जो ग्रहीत पुद्गल इप्ट हो उनसे जीव को सुख होता है । जो पुद्गल अनिष्ट हो उनसे जीव को दुख होता है। जिन ( यथा स्नान भोजनादि में व्यवहृत) पुद्गलो से आयु का अपवर्तन हो वे जीवित उपग्रह - उपकार करते हैं अर्थात् जीव के वर्तमान शरीर से जीव का सम्वन्ध चालू रखने में सहायता करते हैं। जिन पुद्गलो से ( यथा विपशस्त्र अग्नि श्रादि से ) आयु का अपवर्तन हो वे पुद्गल मरण उपग्रह - उपकार करते हैं अर्थात् जीव के वर्तमान शरीर से जीव का सम्बन्धविच्छेद करते हैं । जीव के द्वारा ग्रहीत होने पर, पुद्गल का जीव के साथ जो सम्बन्ध स्थापित होता है वह जीव तथा पुद्गल का सम्बन्ध घनिष्ट है, गाढतर है, स्पृष्ट है, स्नेह से प्रतिबद्ध है, समुदाय रूप है ।
SR No.010273
Book TitleJain Padarth Vigyan me Pudgal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1960
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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