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________________ दूसरा अध्याय पुद्गल के लक्षणो का विश्लेषण ३३ यानी कापायिक परिणामो से युक्त होने के कारण-कर्म-योग्य पुद्गलो को ग्रहण करता है। पुद्गलो के (मन, वचन, काय योग रूप पुद्गलो के)' सयोग से और भी कर्म-योग्य पुद्गलो को ग्रहण करता है। दूसरे शब्दो में जीव पुद्गल को ग्रहण करके ग्रहीत पुद्गलो के साथ वन्वन को प्राप्त होकर-उन पुद्गलो की मन, वचन, काया रूप में भी परिणमन करता है तथा फिर मन, वचन, काय योग परिणत पुद्गलो के सयोग से जीव और कर्म-योग्य पुद्गलो को ग्रहण करता है। कर्म-योग्य पुद्गल ही जीव द्वारा ग्रहीत होते है। सव तरह के पुद्गल जीव द्वारा ग्रहीत नही होते हैं। परमाणु रूप में पुद्गल जीव द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता है। सव तरह की स्कन्ध अवस्था में भी नही। पुद्गल स्कन्धो के समास में जो २२ भेद हैं उन्ही भेदो में कार्माण-वर्गणा तथा नौकाणि-वर्गणा नाम के जो भेद हैं, वे ही पुद्गल-स्कन्ध जीव के द्वारा ग्रहीत होते हैं। जिन पुद्गल-स्कन्धो से (वर्गणाम्रो से) ज्ञानावरणादिक आठ कर्म बनते है उनको कार्माण-वर्गणा-स्कन्व कहते है। जिन पुद्गल-स्कन्वो से शरीर-पर्याप्ति तथा प्राण वनते हैं उनको नोकर्म-वर्गणा-स्कन्ध कहते हैं। नोकर्म-वर्गणास्कन्धो के चार भेद है -(१) आहार-वर्गणा, (२) भापा-वर्गणा, (३) मनो-वर्गणा तथा (४) तेजस्-वर्गणा। इन कर्म-नोकर्म योग्य पुद्गल वर्गणाओ से ससारी जीव के पाँच शरीर (श्रीदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस, कार्माण), वचन तथा प्राणापनि वनते ।
SR No.010273
Book TitleJain Padarth Vigyan me Pudgal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1960
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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