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________________ दूसरा अध्याय पुद्गल के लक्षणो का विश्लेषण २३ नप्रिय है। प्रान्यन्नर में निया--परिणामगक्तियुक्त है। पुद्गल नर्वथा अचन, स्थिर, निक्रिय नहीं है। पुद्गल मवक्षेत्र, मर्वकाल, नवं अवम्या में क्रियावान् ही हो, ऐना भी नहीं है। कभी प्रिया करना है, कभी नहीं भी बग्ना। एक पावाश प्रदेग में म्बिर रहकर भी, पुद्गल-मिया (म्पन-क्रिया) करता है। परिस्पन्दन-जनित क्रियायें निरन्तर नही आकस्मिक होती है। प्रथमन किया के अनन्त पर्यायों की अपेक्षा, अनन्त भंद हो सकते है। नामान्यत निन्या के अनेक भेद होते है लेकिन विशेष अपेक्षाग्रा ने निम्ननिम्विन भेद ही मक्ने है (क)निमित्त-प्रोक्षा में-(१)वनमिक प्रीन(२)मायांगिक । पान्यन्न क्रिया परिणामयुक्न पुद्गल में जो किया स्वत या अन्य पुद्गल के सहयोग में होती है उसे वैत्रमिक तथा अन्य द्रव्य - - १-सामर्यर्यात् मत्रियो जीव पुद्गलानिति निश्चय । -तत्वार्य श्लोक यातिकम ५.७ २ २-परमाणु पोग्गले-सिय एयति, वेयति, जाव-परिणति, सिय णो एयति जाव णोपरिणति। --भगवतीमत्र ५ ७ ३-एगपएसोगाढे पोग्गले मेए तम्मि वा ठाणे, अनम्मि वा ठाणे, जहणेण एग समय, उक्कोसेण प्रानलियाए अससेज्जइ भागचिर होइ। -भगवतीसून ५ ७ ४-क्रियानेक प्रकारा हि पुद्गलानामिवात्मना। तत्त्वार्य श्लोक वातिकम् ७ ४६ ५-पुद्गलानामपि द्विविधा मिया विनसा प्रयोगनिमित्ताच ।। -तत्त्वार्य राजवार्तिकम् ५ ७ १७
SR No.010273
Book TitleJain Padarth Vigyan me Pudgal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1960
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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