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________________ ( 69 ) स्यात् अस्ति एव ५८ स्यात् अवक्तव्य एव ५८ कयचिद् घट है ही और कथचित् घट अवक्तव्य ही हैं। स्यात् नास्ति एव घट स्यात् अवक्तव्य एव घट -कथचिद् ५८ नही ही है और केचित् घट अवक्तव्य ही है। स्यात् अस्ति एव घट स्यात् नास्ति एव घट स्यात् अवक्तव्य एव घट. कपिट ५८ है ही, कथचित घट नही ही है और कयचिद् घट अवक्तव्य ही है। सप्तमगी की वाक्य-रचना मे 'स्यात्' शब्द अनेक धात्मक घट के अस्तित्व धर्म का मुख्य रूप से प्रतिपादन करता है और उसमे विद्यमान शेष धर्मों का गौण कर देता है, उनकी विवशा नही करता। 'एवार' का प्रयोग विवक्षित धर्म के प्रति निश्चयात्मक दृष्टिकोण देता है । सामान्यत कहा जाता है कि स्यावाद मे 'ही' के स्थान से 'भी' का प्रयोग करना चाहिए, किन्तु कुछ गहरे मे जाए तो यह बहुत अर्थवान नही है। 'एक्कार' (ही) का प्रयोग किए बिना विवक्षित धर्म का निश्चय ही नही हो सकता । यदि सापेक्षता न हो तो 'ही' का प्रयोग एकागी ष्टिकोण बना देता है । किन्तु सापेक्षता सूचक स्यात्-शब्द का प्रयोग होने पर 'ही' का प्रयोग एकागी दृष्टिकोण नही देता, केवल विवक्षित धर्म की असदिग्धता जताता है। 'एक्कार' के प्रयोग के तीन प्रयोजन होते हैं 1 अयोग का व्यवच्छेद असबध की निवृत्ति । 2 अन्ययोग का व्यवच्छेद दूसरे के संबंध की निवृत्ति । 3 अत्यन्तायोग का व्यवच्छेद - अत्यन्त असबध की निवृत्ति । 'शव पाण्डुर एव'-शख श्वेत ही है । इस वाक्य मे प्रयोग का व्यवच्छेद है । सद्भाव-विषयक शका की निवृत्ति के लिए विशेषण के साथ 'एक्कार' का प्रयोग किया जाता है । किसी का प्रश्न हो कि शख श्वेत होता है या नही' तव उसके उत्तर मे यह कहा जाता है कि शख श्वेत ही होता है। ___ 'पार्थ एव धनुर्धर.' अजुन ही धनुर्धारी है। इस वाक्य मे अन्ययोग का व्यवच्छेद है। अजुन के धनुर्धारी होने में किसी को सराय नही है किन्तु अर्जुन जसा कोई दूसरा धनुर्धारी है या नही-इस साधारण सद्भाव विषयक शका की निवृत्ति के लिए विशेष्य के साथ 'एक्कार' का प्रयोग किया जाता है ।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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