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________________ ( 20 ) केवलजानी अोर विशिष्ट पूर्वधर पानार्य थे तब तब जी पर मेरा गा प्रमाण-मीमामा का विकास नहीं हुआ। नापी पहनी माता सी में ग्रायक्षिन में अनुयोगहार मूत्र मे प्रमाण की विशद जी की है। मन प्रवती गारि ५ मे प्रमाण की इतनी विशद प प्राप्त नहीं होती । र्शन युग में जन् हेनुवा- प्रमुना और विशिष्ट श्रुतव प्राचार्यो की उपयिति नही रही तब मन मानाय भी हेतुवाद की ओर आकृष्ट हुए । इम। मर्गत नि नि मारित्य में मिलता है। नियुक्तिकार का निदश है कि मन्दबुद्धि श्रोता के लिए उदा. - ग्रोर तीर वार श्रोता के लिए हेतु का प्रयोग करना चाहिए।" यतिवृपम ने हेतुवाद के समर्थन में ph महायपूर्ण उd fail है 13. अनुसार अतीन्द्रिय पदार्थों के विषय मे छदमम्य मनुष्य (जिसे व नान प्राप्त नही है) के विकल्प नियमत अविमवादी नहीं होते। ये विनयादी भी होते है । इसलिए पूर्वाचार्यों की व्यास्यात्री के माथ-साय हेतुवाद की दि. भी थी न होनी पाहिए । उससे दो लाम हो सकते है व्युत्पन्न शिष्यों को बुद्धि की मनुष्टि हो सकती है और अव्युत्पन्न शिप्यो को तत्त्व की अोर श्राप किया जा सकता है। हेतुवाद के प्रयोग की दो ओर मे अपेक्षा हुई। दूसरे दानिक व तुपाद के द्वाग खडन-मइन करने लगे तब अपने मिद्धान्तों की सुरक्षा के लिए हेतुवाद का प्रयोग करना आवश्यक प्रतीत हुआ। प्रभावान् जैन मुनि भी विषय के प८८ बोच लिए हेतुवाद की माग करने लगे। इस प्रकार भीतरी और बाहरी दोनों कारणो मे हेतुवाद को विकसित करना अपेक्षित हो गया । जन प्राचार्यों के पीछे भागमपुरुषो के निरपणो की एक. पुष्ट परम्परा पी। उसमे अनेक अतीन्द्रियगम्य तत्व निरूपित थे । वे हेतुगम्य नही थे । इस स्थिति मे हेतु के प्रयोग की मर्यादा करना आवश्यक हुा । इस आवश्यकता की पूर्ति आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेन ने की। प्राचार्य सिद्धसेन ने 'मनमति मे मागम और हेतुवाद इन दो पक्षो की स्वतन्त्रता स्थापित की और यह बतलाया कि आगमपाद के पक्ष मे पागम का और हेतुवाद के पक्ष मे हेतु का प्रयोग करने वाला तत्व का सम्यक व्याख्याता होता है तथा आगनवाद के पक्ष मे हेतु का और हेतुवाद के 6 दशवकालिक नियुक्ति, गाथा 49 । 7 तिलोयपणती, 7/613 શ્રવિંવિણબુ પવન્વેસુ દુખત્યવિયખાામવિવાશિયમામાવાવો ! तम्हा पु०वाइरियवसायापरिपाए एसा वि दिसा हेतुवादासारिवियुपण्णसिसाघुगह-अनुप्पण्याजउपायण च दरिसे६०वा ।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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