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________________ ( 18 ) और हेतु का मुख्य होना स्वाभाविक है। दार्शनिक साध्य की सिद्धि के लिए आगम का समर्थन नहीं चाहता, वह हेतु पाहता है। प्रागम और हेतु का समन्वय दर्शनयुगीन जैन न्याय की कुछ विशिष्ट उपलब्धिया है। पहली उपलब्धि हैआगम और हेतु का समन्वय । श्राम युग मे अतिम प्रामाण्य प्रारमअन्य या व्यक्ति का माना जाता था। मीमासक अतिम प्रामाण्य वेदो का मानते हैं। उनका अभिमत है कि वेद अपौरुषेय हैं पुरुष के द्वारा निर्मित नही हैं। ईश्वरीय निदश हैं इसलिए अतिम प्रामाण्य उन्ही का हो सकता है । जैन आचार्य पीता मनुष्य को अतिम प्रमाण मानते हैं। जन परिभाषा मे आगम का अर्थ होता है पुरु५ । वह पुरु५ जिसके सव दोष क्षीण हो जाते हैं, जो वीतराग या केवली वन जाता है । स्याना। मूत्र मे पाच व्यवहार निर्दिष्ट हैं श्रागम, श्रुत, पासा, धारणा और जीत । केवलनानी, अवधिज्ञानी, मन पर्यवशानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी और अभिन्नदशपूर्वी (नौ पूर्व तथा दसवे पूर्व की तीसरी आचारचूला को जानने वाला) ये छहो पुरुष भागम होते हैं । आगमपुरु५ को उपस्थिति मे वही सर्वोपरि प्रमाण है। उसकी अनुपस्थिति मे श्रत (आगम पुरुष का वचन-सकलन) प्रमाण होता है। आगमयुग मे पागम पुरु५ का और उसकी अनुपस्थिति मे श्रुत का प्रामाण्य था। दर्शनयुग मे आगम का प्रामाण्य गोय, हेतु या तक का प्रामाण्य मुख्य हो गया। जन आचार्यो द्वारा आगमयुग मे भी हेतु अस्वीकृत नही या। 'नकोऽप्रति०'तर्क अ-प्रतित है-यह विचार जैन न्याय मे कभी प्रतिष्ठित नहीं हुआ। इसका कारण समझने के लिए पूर्व पचित पाच नानो के विषय-वस्तु को समझना होगा। मति और श्रुतमान के द्वारा सब द्रव्य जाने जा सकते हैं, किन्तु उनके सब पर्याय नही जाने जा सकते ।' द्रव्य दो प्रकार के हैं पूत और अमूर्त । अमूत द्रव्य इन्द्रियों के द्वारा ज्ञय नही हैं, मन के द्वारा वे जाने जा सकते है । वे परोपदे। के द्वारा भी जाने जा सकते है । जैन आगमो मे पद्रव्य की व्यवस्था है धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय । इनमे पुद्गलास्तिकाय मूत है और शेष मब अमूक्त । अमूर्त द्रव्य इन्द्रियो के द्वारा 1 (क) भगवती, 8/184,185 1 (ख) तत्वार्य, 1/26 मतिश्रुतयोनिवन्धो द्रव्येवमर्वपर्यायषु । 2 तत्वार्यवातिक, 126 બનન્દ્રિયપુ મતે રમાવાત મર્વદ્રવ્યાનપ્રત્યય કૃતિ રે, ર, નફન્દ્રિયविपर्यत्वात् ।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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