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________________ ( 12 ) की क्षमता है 128 इस ष्टि से इन्द्रिय-जान की अपेक्षा मानसिक-ज्ञान अधिक विकसित है । इन्द्रियो के द्वारा जो अनुभव अजित होते है, वे प्रत्यय या विमान कहलाते है। हम केवल विज्ञानो को ही नही जानते किन्तु ऐसे नियमो श्रीर संबंधो को भी जान लेते है जो पहले ज्ञात नहीं होते। ज्ञान की इस क्षमता का नाम प्रजा या पुद्धि है ।29 इन्द्रिय-ज्ञान, मानसिक-शान और प्रज्ञा-यह मतिज्ञान की सीमा है । हम सकेतो और शब्दो के माध्यम से भी ज्ञेय विषय को जान लेते हैं। हम अनि नामक पदार्थ को देखकर उसके पाचक शब्द को जानने का प्रयत्न करते हैं, अथवा अग्नि शब्द का अर्थवोध कर उसके वाच्य-अर्थ को जानने का प्रयत्न करते हैं । यह प्रज्वलित पदार्य अग्नि शब्द का वाच्य है, इस प्रकार वाच्य-वाचक सवध की योजना से होने वाले शान, अध्ययन से प्राप्त ज्ञान और प्रायोगिक जान की निरचायकता श्रुतज्ञान की सीमा है। भूत्त द्रव्यो का साक्षात् शान करना अवधि जान की सीमा है । मन का साक्षात् शान करना मन पर्यव-ज्ञान की सीमा है। केवल ज्ञान सर्वथा अनावृत जान है, इसलिए उसमे सब द्रव्यो और पर्याय) को साक्षात् जानने की क्षमता है । यही उसकी सीमा है। इन्द्रिय-ज्ञान और प्रमाणशास्त्र अतीन्द्रिय शान एक विशिष्ट उपलब्धि है। वह मार्वजनिक नहीं है, इसलिए वह न्याय-शास्त्र का बहुचर्चित भाग नही है। उसका बहुचर्चित भाग इन्द्रिय-ज्ञान (मति-श्रु त ज्ञान) है । मतिज्ञान क्रमिक होता है । उसका क्रम यह है 1 વિજય ર વિષયી જા સન્નિપાત ! 2. दर्शन निविकल्प बोष, सत्तामात्र का बोध । 3 अवग्रह 'कुछ है' की प्रतीति । 4 ईहा 'यह होना चाहिए' इस आकार का जान । 5 अवाय 'यही है' इस प्रकार का निर्णय । 28 29 जनसिद्धान्त दीपिका, 2133 सवर्थिवाहि कालिक मन ।। नदीसूत्र (37) मे मतिनान के दो प्रकार बतलाए गए हैं श्रुतनिश्रित मति श्रीर अश्रतनिश्रित मति । विज्ञानी को जानने वाली मति को श्रुतनिश्रित और प्रज्ञा द्वारा अज्ञात विधि-निषेध के नियमो और सवधो को जानने वाली मति को अश्रुतनिश्रित कहा जाता है ।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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