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________________ परिणत होने की साक्षात् योग्यता है। भिन्न-भिन्न कार्य भिन्न-भिन्न उपादानो से उत्पन्न होते हैं । सबका उपादान एक नही है। द्रव्य-योग्यता और पर्याय-योग्यता -दोनो का समन्वय करने पर ही सत् और असत् की व्याख्या की जा सकती है। दूध के परमाणुत्रो मे दही०५ मे परिणत होने की योग्यता साक्षात् पर्याय की दृष्टि से है, व्यवहित पर्यायो की टि से दूध के परमाणु कपास के परमाणुओ मे बदल सकते हैं । दूध स्वयं परमाणुश्री का एक पर्याय है। और कोई भी पर्याय चिरतन नहीं होता । चिरतन परमाणु हैं। दूध, दही, मिट्टी, कपास ये सब उनके पर्याय हैं, इसलिए परमाणुओ के किसी एक पर्याय से साक्षात् उत्पन्न होने वाले पर्याय को सत् और व्यवहितरूप से उत्पन्न होने वाले पर्याय को असत् कहा जाता है । इस प्रकार सत् और असत् पर्याय के आधार पर भी मदसत्कार्यवाद की व्याख्या की जा सकती है। (4) दर्शन के क्षेत्र मे दो धाराए हैं पस्तुवादी और अवस्तुवादी या श्रादर्शवादी । इन्द्रियवादी दार्शनिको का यह अभ्युपगम है कि दृष्टिगोचर पदार्थ ही वास्तविक है । जैन, नैयायिक, वरोपिक और मास्य दर्शन के अनुसार भी इन्द्रियगम्य पदार्थ अवास्तविक नही हैं। वौद्ध दर्शन की दो शाखाए -हीनयान और વિનાનવાવી–ફન્દ્રિય પદાર્થો જે વાસ્તવિ નહી માનતી ડન અનુસાર मवेदन के अतिरिक्त जो सवेद्य है वह वास्तविक नही है। वह काल्पनिक है, स्वप्नीपम है या मृगमरीचिका की भाति भ्रान्त है। प्राचार्य शकर के वेदान्त की भी यही स्वीकृति है । पश्चिमी दार्गनिक ह्य म और वर्कले ने भी सवेदन-प्रवाह के अतिरिक्त सर्वच का कोई वास्तविक अस्तित्व स्वीकार नहीं किया। जितने भी નાનવાવી વાર્ગનિ હૈ ન સવને વસ્તુઓ જે વાસ્તવિક અસ્તિત્વ શી અસ્વીકૃતિ की है। न्याय की परिभाषा वस्तु का अस्तित्व स्वत सिद्ध है । नाता उसे जाने या न जाने, इसमे उसके अस्तित्व मे कोई अन्तर नहीं पाता। वह माता के द्वारा जानी जाती है तव प्रमेय वन जाती है और जाता जिससे जानता है वह जान यदि मन्या या निर्णायक होता है तो प्रमाण बन जाता है। इसी आधार पर न्यायशास्त्र की परिभाषा निर्धारित की गई। न्याय-भाप्यकार वात्स्यायन के अनुसार प्रमाण के द्वारा अर्थ का परीक्षण 'न्याय कहलाता है। उमास्वाति के अनुमा• अर्थ का अधिगम प्रमाण और नय के द्वारा होता है ।12 इस सूत्र के आधार पर जैन तर्क-पर-परा मे 11 12 न्यायभाष्य, 11111 प्रमागीरथपरीक्षण न्याय । तत्वार्य मृत्र, 1/6 __प्रमागान रविराम ।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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