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________________ t 155 ) 32 मुनिन्द्र (ई= 12 वीं) ये वृहद्गच्छीय उद्यानाचाय के शिष्य उपाध्याय श्राम्रदेव के शिष्य थे । इनके गुरुभाई का नाम था नेमिचन्द्रसूरी, जिन्होने उत्तराध्ययन सूत्र पर 'सुखबोधा' वृत्ति लिखी थी। माना जाता है कि इस वृत्ति के लिखने मे मूल प्रेरक मुनिचन्द्रसूरी ही थे । गातिसूरी के बत्तीस शिष्य थे । वे अपने गुरु के पास प्रमारण शास्त्र का अभ्यास करते थे | एक बार मुनिचन्द्र नाडोल से विहार कर वहाँ पहुचे श्रीर शातिमूरी द्वारा दी जाने वाली वाचना को खड़े-खड़े ही सुनकर चले गए । यह क्रम पन्द्रह दिनो तक चलता रहा | सोलहवें दिन वत्तीय शिष्यो के साथ-साथ उनकी भी परीक्षा ली गई। मुनिचन्द्र की प्रतिभा से प्रभावित होकर शांतिसूरी ने उन्हें अपने पास रखा और प्रमाणशास्त्र का गहरा अध्ययन करवाया । इन्होंने अनेकान्तजयपताकावृत्ति पर टिप्पर लिखा । 33 मेरुतु ग ( ई० 15 वी ) ये अचलगच्छीय महेन्द्रप्रभमूरी के शिष्य ये । प्रसिद्ध दीपिकाकार माणिक्यशेखरसूरी इन्ही के शिष्य ये । इन्होने 'पद्दर्शननिर्णय' नाम का अन्य लिखा । 34 यतिवृषभ ( ई० 5-6 ) इनकी महत्त्वपूर्ण रचना है- तिलोयपण्णत्ती' | यह प्राठ हजार श्लोको मे वद्ध प्राकृत रचना है । हरिपेरण के कथाको मे प्राप्त एक कथा के अनुसार एक वार श्राचार्य यतिवृपक्ष श्रावस्ती नगरी के राजा जयसेन को धर्मबोध देने गए। वहा किसी शत्रु द्वारा भेजे गए एक गुप्तचर ने यतिवृषभ के शिष्य का वेश धारण कर राजा की एकान्त में हत्या कर दी । तब जैन संघ को राजघात के कलक से बचाने के लिए यतिवृपभ ने श्रात्म-वलिदान किया 7 35 रत्नप्रभसूरी ( ई० 12-13 वी ) ये प्रमाणनयतत्वालक के रचयिता वादी देवसूरी के शिष्य थे । विजयमेनसूरी इनके दीक्षा गुरु थे । प्रमाणनयतत्वालोक पर 'स्यादवादरत्नाकर' नाम की स्वोपन टीका है | इस टीका के प्रणयन मे रत्नप्रभसूरी ने सहयोग दिया था, ऐसा प्राचार्य देवसूरी ने उल्लेख किया है । यह टीका अत्यन्त गहन यी इसलिए रत्नप्रभ ने इस पर 'रत्नाकरावतारिका नाम की एक लघु टीका लिखी । परन्तु वह भी 6 7 कुछ इन्हे यशोभद्र के शिष्य मानते है । वीरशासन के प्रभावक प्राचार्य, पृष्ठ 39 ।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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