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________________ ( 101 ) मीमासको का मत है कि शब्द की कभी उत्पत्ति नही होती और उसका कमी विनाश नहीं होता। वह नित्य है । श्रारण या व्यवधान के कारण वह हमे निरतर सुनाई नहीं देता । श्रीचरण के दूर होने पर हम उसे सुन सकते हैं । इस सिद्धान्त के आधार पर उनका मानना है कि शब्द अभिव्यक्त होता है, उत्पन्न नहीं होता। जन परम्परा मे उth मत स्वीकृत नही है । उसके अनुसार शब्द उत्पन्न होता है । उसकी उत्पत्ति के दो कारण है सघात और भेद । दो वस्तु परस्पर मिलती है या कोई वस्तु अलग होती है, टूटती है तब शब्द उत्पन्न होता है । 40 उसमे प्रतिपादन की शक्ति स्वाभाविक है। सकेत के द्वारा उसमे अर्थवोधकता आरोपित की जाती है। प्रत्येक शब्द मे प्रत्येक प्रर्य का वाचक होने की क्षमता है। अमुक शब्द अमुक अर्य का ही वाचक हाता है इसका नियामक सकेत है। स्वाभाविक शक्ति और सकेत के द्वारा शब्द अर्य का वोध कराता है। जिसे सकेत जात होता है वही व्यक्ति शब्द के द्वारा उसके पाच्य को समझ पाता है। अग्नि शब्द मे अग्नि अर्य का सकेत प्रारोपित है। यदि वह सकेत मुझे ज्ञात है तो मैं अग्नि शब्द के वाच्य अग्नि अर्य को समझ पाऊगा। जो भारतीय भाषा को नही जानता वह उसे नही समझ पाएगा। तर्जनी अगुली के हिलाने में एक सकेत आरोपित है। उसे जानने वाला उसके हिलते ही तर्जना का अनुभव के ने लग जाता है। यही वात शब्द के सकेत की है। ___मीमासक मानते हैं कि शब्द का विषय केवल सामान्य है। गो शब्द गो व्यक्ति का नही, गोत्व सामान्य का वाचक है। सामान्य मे सकेत किया जा सकता है । असत्य विशेषो मे वह नहीं किया जा सकता। जनदृष्टिकोण इससे भिन्न है । उसके अनुसार शब्द का विषय सामान्य-विशेषात्मक वस्तु है । केवल सामान्य (जाति) अर्थक्रियाकारी नही हो सकता। घट, ५८ श्रादि व्यक्ति अर्थक्रियाकारी हो सकते है, किन्तु घटत्य या पटत्व अर्थनियाकारी नही हो सकते । ममान परिणति वाले वाच्यअर्थों के अनगिन होने पर भी सकेत का ग्रहण हो सकता है। अग्नि साध्य है और धूम साधन । वे असख्य हैं, फिर भी तर्क के द्वारा उन सबको जाना जा सकता है तब असंख्य विशेषो से सवद्ध सकेत को क्यो नही जाना जा सकता? वस्तु का स्वरूप ही सामान्य-विशेषात्मक है, इसलिए केवल सामान्य या केवल विशेष शब्द का वाच्य नही होता । सामान्य-विशेषात्मक वस्तु ही शब्द का वाच्य होती है । 40 ला 2/220 दोहिं ठाणेहि सह पाते सिया, त जहा साहणताण घेव पोग्गलारण स६ पाए सिया, भिज्जतारण चेव पोगलाप सह प्पाए सिया ।
SR No.010272
Book TitleJain Nyaya ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherNathmal Muni
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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