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________________ ५८ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन इतना ही नहीं, मुक्तककाव्य-बाहुल्य का एक कारण और था। जो कवि राज्याश्रित न थे; कबीर, सूर, तुलसी, मीराँ की भाँति स्वतंत्र प्रकृति के कलाकार थे; जो लोकहिताय और स्वान्तःसुखाय के लिए कविता करने में आनन्दोत्सव मनाते थे; जो काव्य के माध्यम से जन-हृदय को आन्दोलित करने के अभिलाषी थे, ऐसे कवियों को भी प्रबन्ध की अपेक्षा मुक्तक अधिक प्रिय और अधिक प्रभावशाली प्रतीत हुआ। उनकी दृष्टि में मुक्तक से ही उनकी जन-हृदय में गहरी पैठ हो सकती थी। इस युग में अनेक छन्दों में मुक्तक-रचना हुई; जीवन और जगत् के अनेक पक्षों को लेकर मुक्तकों को रूपायित किया गया। मुक्तकों का विषयक्षेत्र व्यापक रहा। प्रबन्धकाव्य-धारा ऊपर यह लिखा जा चुका है कि समीक्ष्य युग में प्रबन्धकाव्यों की अपेक्षा मुक्तकों की अधिक रचना हुई । साथ ही इस युग में जो प्रबन्धकाव्य प्रणीत हुए, वे संख्या में चाहे कितने ही हों, किन्तु श्रेष्ठता में वे 'रामचरितमानस' या 'कामायनी' जैसे काव्यों की समानता नहीं कर सकते । इस समय अधिकांशतः खण्डकाव्य या एकार्थकाव्य ही रचे गये। यह बात नहीं कि महाकाव्य रचे ही नहीं गये, पर वे संख्या में बहुत थोड़े हैं। सारांश यह है कि प्रबन्धकाव्यों का प्रणयन इस युग में भी समाप्त नहीं हो गया । प्रबन्धकाव्यों की धारा हिन्दी के आदिकाल से चलकर भक्तिकाल को पार करती हुई इस युग में भी सतत प्रवहमान होती रही। रीतिकाव्य-धारा __ आचार्य बन कर काव्य-शास्त्र के नियमों के विवेचन की प्रवृत्ति भी इस युग के अनेक कवियों में पायी जाती है। कुछ कवि-आचार्यों ने सम्पूर्ण काव्यांगों का विवेचन प्रस्तुत किया; तो कुछ ने रस, अलंकार, ध्वनि आदि का । इस प्रकार लक्षण-ग्रन्थों की इस युग में बाढ़-सी आ गई।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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