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________________ युग-मोमासा ४१ संघर्ष के बीच पिसती हुई जनता अब एक सरल, सीधा, व्ययहीन तथा कर्मकाण्ड से रहित मार्ग चाहती थी। ऐसे ही समय में विविध उदाराशय सन्तों और कवियों ने एक सामान्य, सुबोध और सहज आचरण योग्य धर्म का प्रचार कविता द्वारा, उपदेशों द्वारा तथा जन-सेवा द्वारा किया, जिससे जनता ने पुनः सान्त्वना प्राप्त की। जैन प्रबन्धकाव्यों में तत्कालीन धार्मिक अवनति का उल्लेख मिलता है। सम्भवतः इसीलिए उनमें धर्म के सच्चे स्वरूप से च्युत प्राणी को स्थलस्थल पर धिक्कारा गया है। उनमें धर्म के श्रद्धा, विश्वास एवं कर्मकाण्डमूलक तत्त्वों तथा नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना है । बाह्याडम्बर का उनमें विरोध है, भक्ति-ज्ञान और कर्म-योग की त्रिवेणी उनमें प्रवाहित है।' इस युग के काव्य में प्रायः स्वधर्म को अधिक महत्त्व दिया गया है। अधिकांश कृतियों में जैन दार्शनिक चिन्तन और 'जिन' भक्ति-भावना की प्रबलता उपलब्ध होती है। सारांश यह है कि इस काल के कवियों ने स्वधर्म के प्रति आस्था प्रकट की है। इन्होंने धर्म के क्षेत्र में जो संकीर्णता और कट्टरता फैल रही थी या अलौकिकता में ऐहिकता, भक्ति में विलास और शृंगार की भावना बढ़ चली थी, का समर्थन नहीं किया। ये कवि जन-जन के हृदय में धर्म का संचार कर, ऊँच-नीच का भेद-भाव भुलाकर आत्मा की अमरता के गान से मनुष्य को मनुष्यता की डोर से बाँधने के अभिलाषी थे। विभिन्न कलाओं की स्थिति कला सतत विकासशील तत्त्व है । उसका सतत प्रवाह न कभी रुका है डॉ० रवीन्द्रकुमार : कविवर बनारसीदास (जीवनी और कृतित्व), पृष्ठ १६ । २. (अ) पंचेन्द्रिय संवाद (ब) शत अष्टोत्तरी । ३. (अ) पार्श्वपुराण (ब) श्रेणिक चरित । ४. (अ) चेतन कर्म चरित्र (ब) फूलमाल पच्चीसी।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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