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________________ ३२ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन इन प्रबन्धों में भी 'जाको बल ताही को राज' वाली कहावत को दुहराया गया है, राज्य को चपला-चमत्कार की भाँति अस्थिर की संज्ञा दी गयी है और राजा-राणा-छत्रपतियों के 'अहं' को चूर करते हुए उनसे कहा गया है कि तैयार हो जाओ : एक दिन तुम्हें भी काल के मुख में जाना है । तुम गर्व क्यों करते हो ? अनीति को छोड़ो। राज-समाज वैर और महापापों का मूल है। तुम राजा राम के समान प्रजावत्सल बनो और उसके भय को दूर कर उसके सुख-दुःख की बातें सुनो। न्याय में पक्षपात न करो, भले ही इसके कारण तुम्हें अपने आत्मज तक को राज्य से निष्कासित करना पड़े। वह राजा निन्दनीय है जो क्रूर, अन्यायी और धर्ममार्ग से च्युत है । ऐसा पापी राजा स्वयं ही अपने वंश को समूल नष्ट करता है ।। उस युग में युद्ध एक खेल बन गया था। बात ही बात में युद्ध ठन जाता था। रणनाद करके सेना सजाने और युद्ध करने में कोई देर नहीं लगती थी। युद्ध में अनेक दाव-पेचों और अनेक शस्त्रास्त्रों का प्रयोग होता था। १. नेमिचन्द्रिका (आसकरण), पृष्ठ ८ । पार्श्व पुराण, पद्य ७३, पृष्ठ ५६ । १. वही, पद्य ६६, पृष्ठ ३४ । ४. सीता चरित, पद्य ३६, पृष्ठ ४ । ५. शील कथा, पृष्ठ ६५ । नेमीश्वर रास, पद्य १०३४, पृष्ठ ६० । इस कृति का रचनाकाल विक्रम संवत् १७६६ है। कवि उस नगर (अंबावती-आमेर) का निवासी था, जहाँ से राजधानी दूर न थी। उसके हृदय से निःसृत उद्गार औरंगजेब की मृत्यु के लगभग ५ वर्ष पश्चात् के हैं, जिनसे तत्कालीन शासक वर्ग की मनोवृत्ति का अच्छा परिचय मिल जाता है। ७. चेतन कर्म चरित्र, पद्य १५, पृष्ठ ५६ । "रणसिंगे बज्जहिं, कोउ न भज्जहिं, करहिं महादोउ जुद्ध ।"-वही, पद्य १४५, पृष्ठ ७१।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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