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________________ भाषा-शैली २६७ सारांश यह है कि समालोच्य प्रबन्धकाव्य ब्रजभाषा के हैं । ब्रज से दूर-दूर के जिन कवियों ने ब्रजभाषा में काव्य-रचना की है, उनकी भाषा में इतस्ततः स्थानगत विशेषताएँ मिल जाना स्वाभाविक है । सहज भाषा की प्रकृति भी यही है । ध्वनि- विचार प्रत्येक भाषा की अपनी एक भिन्न प्रकृति होती है । जब भी वह किसी दूसरी भाषा से शब्द ग्रहण करती है तो उसकी ध्वनियों को अपनी प्रकृति के अनुसार ढाल लेती है । हमारे विवेच्य काव्यों की भाषा मुख्यतः ब्रजभाषा है, इसलिए उसने दूसरी भाषाओं के शब्दों को ग्रहण करते समय उनकी ध्वनियों को अपनी प्रकृति के अनुसार बदल लिया है । ध्वनियों का यह परिवर्तन द्रष्टव्य है : विवेच्य काव्यों में 'श' के स्थान पर 'स' का प्रयोग अधिक मिलता है, जैसे : विशाल शीश शशि निराश विसाल सीस ससि निरास कहीं-कहीं 'श' का 'श' भी प्राप्त होता है : निशानी निशानी दर्शन दर्शन निश निश अंश शारद राजेश शोक शील शिव शुभ अंस सारद राजेस सोक मूल शील शिव शुभ अधिकांश स्थलों पर 'ल' का 'ल' ही मिलता है; किन्तु कहीं-कहीं 'ल' का 'र' भी मिलता है, जैसे : बादल बदार मूर
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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