SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चरित्र-योजना २१७ रण नहीं करता, अत: वह क्लेश पाता है । असह्य वेदना पाने पर जब उसे गुरु-वाणी याद आती है तब वह सच्चा गुरु-भक्त हो जाता है।' निष्कर्ष समीक्ष्य प्रबन्धकाव्यों में चरित्र-योजना पर विचार करते हुए हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि उनमें भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों और समाज के भिन्नभिन्न वर्गों के चरित्रों का स्थान दिया गया है । इन चरित्रों के शील-विवेचन में कवियों की दृष्टि बहुमुखी रही है । चरित्र-चित्रण के क्षेत्र में उनकी दृष्टि परम्परा के पालन के साथ-साथ नवीनता की ओर भी गयी है। इस प्रकार उन्होंने इस जगतीतल की नाना सुरूपताओं एवं कुरुपताओं को विभित्र चरित्रों के परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास किया है। आलोच्य पात्रों में देव-चरित्र मानव को परोक्ष शक्ति का विश्वास कराते हैं। मानव पात्र हमारे हृदय को अधिक संवेदनशील ही नहीं बनाते, अपितु सृष्टि के इतिहास को भी अधिक प्रशस्त करते हैं । मानवीकृत और प्रतीकीकृत पात्रों की अवतारणा भी बड़े महत्त्व की है क्योंकि उनके चरित्रचित्रण से कवि की मौलिक दृष्टि और सृष्टि का पता चलता है । आलोच्य रचनाओं में इन सभी प्रकार के चरित्रों का अपना स्थान है। जैन प्रबन्धों में नारी चरित्रों की अपेक्षा पुरुष चरित्रों का अधिक संख्या में पर्दापण हुआ है । ठीक भी है क्योंकि बाह्य जगत् में नारी की अपेक्षा पुरुष की दौड़ अधिक होती है। दोनों ही प्रकार के चरित्रों की योजना द्वारा अधर्म पर धर्म, पाप पर पुण्य और राग पर विराग की विजय १. बैठो लोभ नलिनी पं जब । विषय स्वाद रस लटके तबै । लटकत तरै उलटि गये भाव । तर मुडी ऊपर भये पांव ॥ नलिनी दृढ़ पकर पुनि रहै । मुख ते वचन दीनता कहै । कोउ न बन में छुड़ावन हार । नलिनी पकरहि करहि पुकार ॥ -सूआ बत्तीसी, पद्य १०-११, पृ० २६८ । २. वही, पद्य २५ से २७, पृष्ठ २७० ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy