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________________ 'राक्षसवंश की उत्पत्ति | ११ - राक्षसपति ! तुम दोनों के वैर-भाव का यही कारण है। लब्धिकुमार देव ने परम उपकारी गुरुदेव को सिर झुकाया और वहाँ से चला गया। तडित्केश राजा अपना पूर्वभव जानकर संसार के भोगों से विरक्त हुआ । उसने लंका वापिस आकर अपने पुत्र सुकेश को राज्यभार दिया और स्वयं वापिस आकर मुनिश्री के पास दीक्षित हो गया। मुनि तडित्केश ने घोर तपस्या की। संयम और ज्ञान की आराधना के फलस्वरूप उन्हें निर्मल केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। अनुक्रम से उन्होंने परमपद प्राप्त कर लिया। इसके बाद इन्होंने विश्वकर्मा से -अपने लिए महल बनाने का आग्रह किया। विश्वकर्मा ने उन्हें दक्षिण दिशा में सुवेल और त्रिकूट पर्वत पर बसी तीस योजन चौड़ी और सौ योजन लम्बी नगरी लंकापुरी का पता बता दिया । ये तीनों अपने परिवार सहित वहाँ रहने लगे। इन तीनों भाइयों का विवाह नर्मदा नाम की गन्धर्वी की तीन कन्याओं से हुआ। माल्यवान की स्त्री का नाम सुन्दरी था और उसके सात पुत्र थे-वज्रमुष्टि, विरुपाक्ष, दुर्मुख, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, मत्त और उन्मत्त; तथा एक पुत्री अनला। ___ सुमाली की पत्नी केतुमती के पुत्र हुए–प्रहस्त, अकंपन, विकट, कालिकामुख, धूम्राक्ष, दण्ड, सुपार्श्व, संहादि, प्रघस और मासकर्ण तथा पुत्रियाँ राका, पुष्पोत्कटा, कैकसी और कुम्भीनसी। ___ माली की पत्नी सुनन्दा ने जन्म दिया-अनिल, अनल, हर और सम्पाति को। ये सभी मदोन्मत्त होकर ऋपियों और उनके यज्ञों का विध्वंस करने लगे। [उत्तरकाण्ड]
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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