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________________ राक्षसवंश की उत्पत्ति |७ इस देव योनि में आया हूँ। उन निष्कारण परम उपकारी मुनिश्री की वन्दना हेतु देव चल दिया। भक्तिपूर्वक वन्दना करके लौटा तो उसने देखा, राक्षसपति तडित् केश के सैनिक निरपराध वानरों को वीन-बीनकर मार रहे हैं। पहले तो उसे बड़ा दुःख हुआ-'यदि मैं गलती न करता तो इतने निरपराध जीवों का वध न होता।' किन्तु फिर उसे राजा और राज कर्मचारियों पर क्रोध आया-'एक जीव --पुत्र ! बड़ा ही अच्छा हुआ जो तू मुझे आज मिल गया । मैं इस जन्म में भी तुझे ही अपना पुत्र मानता हूं। मेरे सर्वस्व का एकमात्र तू ही अधिकारी है । मेरे साथ चल । लवण समुद्र में सात सौ योजन विस्तार वाला और सभी दिशाओं में फैला हुआ एक राक्षस द्वीप है। उसके मध्य में त्रिकूट नाम का वलयाकार पर्वत है। वह नी योजन ऊँचा और पचास योजन विस्तार वाला है । उस पर्वत पर लंका नाम की नगरी है। वह स्वर्णमय गढ़ से सुरक्षित और मेरी ही बसाई हुई है । इसके छः योजन पृथ्वी में नीचे प्राचीनकाल की पाताल लंका नगरी है । इन सवका स्वामी मैं ही हूँ। हे पुत्र ! इन दोनों नगरियों का स्वामित्व मैं तुझे देता हूँ। तीर्थंकर भगवान के वन्दन के सुफल रूप में इसे स्वीकार कर ! यह कहकर राक्षसद्वीपाधिपति भीम ने राक्षसी विद्या और नौ मणियों वाला अपना दिव्यहार मेघवाहन को दे दिया । मेघवाहन राक्षसाधिपति भीम के साथ प्रभु की वन्दना करके 'लंका नगरी को चला आया। -त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र २१५ विशेष-राक्षसीविद्या और राक्षसद्वीप के स्वामित्व के कारण ही मेघवाहन का वंश राक्षसवंश के नाम से लोक में प्रसिद्ध हुआ। -सम्पादक
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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