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राक्षसवंश की उत्पत्ति | ५ वानर अन्तिम साँसें ले रहा था । मुनिश्री ने करुणा हृदय से उसे परलोक के संवल रूप महामन्त्र नवकार सुनाया। वानर के परिणाम शान्त हुए । शरीर छोड़कर उसने लब्धिकुमार (भुवनपति
जिस समय वह अपने नगर पहुंचा तो सन्ध्या हो चुकी थी और चारों ओर अंधेरा छाने लगा था । परिणामस्वरूप वह नगर के बाहर ही ठहर , गया । किन्तु आधी रात के समय पिता का हृदय नहीं माना और उसी अंधेरे में वह अपने घर चल दिया। रात्रि के अन्धकार में वह अपने पुत्र को घर के अन्दर खोज रहा था कि उसके पद-चापों से पुत्र हरिदास की नींद खुल गई । हरिदास ने समझा कोई चोर घुस आया है। उसने विना सोचे-समझे और विना पूछे-ताछे तलवार का तेज प्रहार कर दिया। पिता सांघातिक रूप से घायल हो गया । उसने देखा कि उसका पुत्र ही उसे मार रहा है तो उसके क्रोध का पार नहीं रहा । उसने तीव्र शत्रुता के भाव लिए ही प्राण छोड़े।
इधर जब हरिदास ने देखा कि उसके हाथ से अनजाने में ही पिता की हत्या हो गई तो उसे घोर दुःख हुआ। तीव्र पश्चात्तापपूर्वक उसने पिता का अन्तिम संस्कार किया। कालान्तर में हरिदास भी मर गया।
अनेक भवों में भटकते हुए भावन तो पूर्णमेघ हुआ और हरिदास सुलोचन । उसी भव की शत्रुता का बदला पूर्णर्मेघ ने सुलोचन से चुकाया है।
--त्रैलोक्यपति ! इन दोनों के पुत्रों की शत्रुता क्यों हुई ? और मेरे हृदय में सहस्रलोचन के प्रति स्नेह किस कारण उमड़ रहा है सगर ने प्रभु के समक्ष जिज्ञासा प्रकट की ।
समाधान मिला
-सगर ! तुम पूर्वभव में रम्भक नाम के संन्यासी थे । तुम्हारी प्रवृत्ति दान देने में अधिक थी । तुम्हारे दो शिप्य भी थे-~-शशि और