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________________ सीता, सुग्रीवं आदि के पूर्वभव | ४६६ देखकर वेगवती ने व्यंग्यपूर्वक हँसी उड़ाई -'अरे लोगो ! इस साधु को तो मैंने कुछ दिन पहले एक स्त्री के साथ क्रीड़ा करते देखा था। उस स्त्री को मैंने दूसरे स्थान पर पहुँचवा दिया । ऐसे साधु की तुम .. लोग क्यों वन्दना करते हो ?' यह सुनकर सभी लोग विस्मित रह गये। मुनि ने भी अभिग्रह लिया--'जब तक मेरा यह मिथ्या कलंक , नहीं मिटेगा तब तक मैं कायोत्सर्ग में लीन रहूँगा।' : ___ मुनि पर लोग उपद्रव करने लगे। वे तो शान्त भाव से इस उपसर्ग को सहते रहे किन्तु शासन देवता को सह्य नहीं हुआ। उसने वेगवंती का मुख तत्काल व्याधिग्रस्त कर दिया । पिता श्रीभूति ने भी वेगवती को बहुत धिक्कारा । पिता के रोष और व्याधि की पीड़ा से - दुःखी होकर वेगवती ने मुनिश्री के समक्षं आकर सभी लोगों के . · सामने उच्च स्वर से अपना अपराध स्वीकार करते हुए कहा-'हे. स्वामी ! मैंने आप पर झूठा कलंक लगाया था । आप सर्वथा निर्दोष हैं। हे क्षमासागर ! मेरा अपराध क्षमा करो।" ...' इन शब्दों को सुनते ही लोग उपद्रव की वजाय मुनि की पूजा करने लगे। मुनि तो उपकारी और अपकारी के प्रति समभाव ही रखते हैं । लेकिन शासन देवता ने उसे पुनः ज्यों की त्यों रूपवती बना दिया । सर्वत्र मुनि सुदर्शन की जय-जयकार होने लगी । वेगवती : श्रद्धालु श्राविका हो गई। शम्भु राजा ने वेगवती के रूप से आकर्षित होकर उसकी याचना की। श्रीभूति ने 'वेगवती का विवाह मिथ्यात्वी के साथ नहीं होगा' कहकर राजा की इच्छा ठुकरा दी। राजा ने कुपित होकर श्रीभुति - को मार डाला और वेगवती पर वलात्कार किया। उस समय - वेगवती ने श्राप दिया- 'मैं भवान्तर में तुम्हारे नाश का कारण ... बनूंगी।' इस पर शम्भु राजा ने उसे छोड़ दिया ! वेगवती ने हरि कान्ता आर्या के पास व्रतः ग्रहण किये और आयु पूरी करके ब्रह्म
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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