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________________ ४६८ | जैन कथामाला (राम-कथा) सेठजी ! एक बार महामन्त्र के श्रवण का ऐसा सुफल ! मैं तो इस चिन्तामणि रत्न की आराधना में ही लीन रहेगा । मुझे राज्य का क्या लोभ ? चैत्य का निर्माण कराके मैं तो आप ही की खोज में था। आप मिल गये, मेरा मनोरथ पूरा हुआ। यह कहकर वृपभध्वज पद्मरुचि को अपने साथ ले गया। श्रावक पअरुचि चिरकाल तक श्रावक धर्म पालता रहा । दोनों मरकर ईशान कल्प में परमद्धिक देव हुए । __ पद्मरुचि वहाँ से अपना आयुष्य पूर्ण करके मेरुगिरि की पश्चिम दिशा में स्थित वैताढ्य पर्वत पर नन्दावर्त नगर के राजा नन्दीश्वर और रानी कनकाभा का नयनानन्द नाम का पुत्र हुआ। वहाँ राज्य सुख भोगकर उसने दीक्षा ग्रहण की और मरकर चौथे स्वर्गलोक माहेन्द्र कल्प में देव हुआ। वहाँ से अपना आयुष्य पूर्ण करके पूर्व विदेह में क्षेमापुरी के राजा विपुलवाहन की रानी पद्मावती के गर्भ से श्रीचन्द्रकुमार नाम का पुत्र हुआ। राज्य का सुख भोगकर समाधिगुप्त मुनि से प्रवज्या लो और कालधर्म पाकर पांचवें स्वर्ग ब्रह्मलोक में इन्द्र बना । वहाँ से च्यवन करके पनरुचि का जीव महाबलवान बलभद्र श्रीराम के रूप में अवतरित हआ है और वृपभध्वज का जीव अनुक्रम से सुग्रीव ! __श्रीकान्त सेठ का जीव भवभ्रमण करता हुआ मृणालकन्द नगर के राजा शंभु और उसकी रानी हेमवती का वज्रकुण्ड नामक पुत्र हुआ। वसुदत्त का जीव भी शम्भु राजा के पुरोहित विजय और उसकी स्त्री रत्नचूला का पुत्र श्रीभूति बना। गुणवती का जीव श्रीभूति की सरस्वती नाम की पत्नी के उदर से वेगवती नाम की पुत्री हुई। 'अनुक्रम से वेगवती युवा हो गई। एक बार सुदर्शन नाम के प्रतिमाधारी मुनि को लोग वन्दन कर रहे थे। उस समय उन्हें
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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