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________________ ४५८ | जैन कथामाला (राम-कथा) पुरुष ही ऐसा कर सकते हैं। हाँ, मैं परीक्षा देने के लिए तव भी तैयार थी और अव भी हूँ। राम से कुछ भी उत्तर न बन सका सीताजी के इस नीतिपूर्ण तर्क का । वात बदल कर बोले -तो परीक्षा ही सही, कैसी परीक्षा दोगी तुम ? सीता ने दृढ़ स्वर में कहा-दिव्य परीक्षाएँ पाँच प्रकार की हैं । मैं पाँचों प्रकार के दिव्य करने को तैयार हूँ। आप कहें तो अभिमन्त्रित तन्दुलों (चावल) का भक्षण करूं, ताजवा पर चढूं, पिघले हुए शीशे अथवा लोहे को पी जाऊँ, जिह्वा से शस्त्र का फल ग्रहण . करूं, अथवा धकधकाती हुई अग्नि में कूद पडूं। उसी समय आकाश से सिद्धार्थ और नारद तथा पृथ्वी से अयोध्या वासियों का कोलाहल पूर्ण शब्द सुनाई दिया -सीता महासती है। किसी दिव्य की आवश्यकता नहीं। हमें इनके चरित्र पर पूरा विश्वास है । जानकी के वियोग से क्षुभित राम के हृदय का दुःख आक्रोश वनकर लोगों पर बरस पड़ा -तुम्हारा भी कोई ठीक है ! पहले तो इस महासती का अपवाद करके विरह के दावानल में झोंक दिया और अव कहते हैं कि यह निर्दोष है । नहीं देवि ! तुम अग्नि प्रवेश करके अपने शील का प्रमाण दे दो। कैसे भी यह कलंक तो मिटे । मेरा और तुम्हारा मिलन-सुख तो भाग्य से देखा ही नहीं जाता। कभी रावण अन्तराय वनकर ना जाता है तो कभी अयोध्या की प्रजा ! हमने तो जन्म ही चिर-वियोग के लिए लिया है । वन-वन भटके । हमेशा दुःख ही सहे। कभी भी तो सुख के दिन नहीं देखे ।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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