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________________ सीताजी की अग्नि-परीक्षा ४५७ सुग्रीव ने पुनः कहा -विरक्ति मत दिखाइए । श्रीराम सभी नगर-जनों और अधिकारियों के साथ आपके शील की परीक्षा हेतु अयोध्या के बाहर बैठे हैं । सीता स्वयं को निर्दोष सिद्ध करना ही चाहती थी। उसके चरित्र पर अयोध्यावासियों ने जो मिथ्यादोषारोपण किया था, वह उसके हृदय में कांटे की तरह चुभ रहा था। उसने अबसर गँवाना उचित नहीं समझा और चुपचाप विमान में बैठ गई । - सुग्रीव ने विमान नगर के बाहर महेन्द्रोदय उद्यान में उतारा । लक्ष्मण आदि ने आकर सीताजी को नमस्कार किया और विनम्र स्वर में बोले -हे देवी ! अयोध्या नगरी और राजमहल में प्रवेश करके उसे पवित्र कीजिए। -वत्स ! पहले ही तुम्हारा कुल मेरे ही कारण कलंकित हो चुका है। शुद्धि विना प्रवेश करने से वह सदा के लिए कलंकित हो जायगा। इसलिए बिना परीक्षा दिए में नगर-प्रवेश नहीं करूंगी। -सीता ने दृढ़ स्वर में कहा । ___ सीता की यह कठिन प्रतिज्ञा लोगों ने राम को बता दी। राम ने वहाँ आकर न्याय निष्ठुर शब्दों में सीताजी से कहा -तुम इतने दिन रावण के घर रहीं, यदि तुम्हारा शील अखण्डित है तो दिव्य चमत्कार करो। हँसकर उत्तर दिया सीता ने --दिव्य चमत्कार करना या तो देवों का कार्य है अथवा दिव्यशस्त्रों के धारक आप जैसे लोगों का । चमत्कार तो आपने किया। -कैसे ? --न्याय-नीति पूर्वक अपराध का निर्णय किये बिना किसी को दारुण दुःख रूपी दण्ड दे देना क्या कम चमत्कार है ? आप जैसे महान
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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