SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 461
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भरत और कैकेयी को मोक्ष-प्राप्ति | ४०५ किये। सासुओं के 'हमारी ही तरह वीर प्रसविनी हो, 'पति का तुम्हें सदैव ही प्रेम प्राप्त होता रहे,' आदि आशीर्वचनों से महल गूंज गया। राजमहल में हर्ष छा गया । रानी अपराजिता (कौशल्या) वार-बार लक्ष्मण के शरीर पर हाथ फेरकर कहने लगी___-वत्स ! बड़े भाग्य से तुम्हें देखा है । तुम्हारा तो दूसरा जन्म ही हुआ। राम और सीता की सेवा करके तुमने वन में बहुत कष्ट उठाये। विनत स्वर में लक्ष्मण ने उत्तर दिया -नहीं माँ ! कष्ट तो मेरे कारण अग्रज राम और माता तुल्य भगवती सीता को हुआ। इन्होंने पुत्र के समान ही मेरा पालन किया। , हर मुसीबत से बचाया । मैं तो उद्धत हूँ। इन्हें आपत्तियों में फंसाता रहा और ये मेरी रक्षा करते रहे। गद्गद हो गई अपराजिता लक्ष्मण की विनीत वाणी सुनकर । कैसा स्पृहणीय प्रेम था भाइयों का! भाइयों के आगमन की खुशी में भरत ने अयोध्या में बहुत बड़ा उत्सव कराया। प्रेरणा भरत की थी और उत्साह नगर-वासियों का। अयोध्या का कण-कण खुशी से झूम उठा था । एक दिन अवसर पाकर भरत ने राम से निवेदन किया -आर्य ! आपकी आज्ञा से आज तक सज्य का संचालन किया अब यह भार आप संभालिए। -क्यों अब क्या नई बात हो गई ? -राम ने पूछा । • ~वात नई नहीं, बहुत पुरानी है आर्य ! मैं व्रत लेना चाहता हूँ। -भरत ने अपनी इच्छा बताई। .
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy