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________________ रावण का मुकुट-भंग | ३३५ कूटनीति से काम लेते हुए रावण ने कहा -वड़े खेद की बात है तुम जैसे पराक्रमी ने राम का दूत बनना स्वीकार कर लिया । वन-वन भटकने वाला, दीन-हीन, निर्बल; है ही क्या उस राम के पास ? -रावण ! राम के पास वह है, जो शक्तिशाली होते हुए भी तुम्हारे पास नहीं है । उनके पास सद्धर्माचरण और सच्चरित्रता की वह पूंजी है जिसके सम्मुख त्रिलोक की सम्पत्ति भी फीकी है । मुझे गर्व है कि मैं राम का दूत हूँ। . ___-हाँ ! हाँ !! होना ही चाहिए। राम की सेवा का सुफल भी तुम्हें तत्काल ही मिल गया। बन्धन में जकड़े कितने शोभायमान लग रहे हो ? हृदय प्रसन्न हो गया। -व्यंगपूवक रावण ने कहा । -हृदय तो तुम्हारा प्रसन्न तब भी हुआ था जव चोरों की भाँति सीताजी को उठा लाये थे। यदि कुशल चाहते हो तो उन्हें तुरन्त लौटा दो। -न लौटाऊँ तो? -तो सर्वनाश हो जायगा, तुम्हारा । -मेरा सर्वनाश ! -हो हो करके हँस पड़ा रावण । -हँस क्या रहे हो राक्षसराज ! यह अट्टहास करुण-क्रन्दन में परिवर्तित हो जायगा। हँसी रोककर दशमुख कहने लगा-गर्वोक्ति खूव कर लेते हो ! अपने प्राणों को खैर मनाओ। . -प्राण तो तुम्हारे ही यमलोक को जायेंगे। मेरे यहाँ से जाते ही श्रीराम-लक्ष्मण लंका पर आक्रमण कर देंगे और तुम तो क्या तुम्हारे परिवार में भी कोई जीवित नहीं बचेगा। परस्त्री-प्रसंग के
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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