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________________ ३३४ | जैन कथामाला (राम-कथा) आखिर रावण ने ही मौन तोड़ा-तुम तो पवनंजय के पुत्र हो ? -हाँ लंकेश ! मैं वही हूँ जिसने वरुणयुद्ध में तुम्हारी प्राण रक्षा ___ की थी। ___-वह तो सेवक का कर्तव्य था। तुमने अपना कर्तव्य निभाया। हम भी तुम से प्रसन्न हुए। -रावण ने वात को मोड़ देना चाहा। हनुमान ने मुस्कराकर कहा- . ___-लंकापति ! तथ्य को छिपाकर अपने अभिमान को पोषित करने से क्या लाभ ? आत्मतुष्टि भले ही हो जाय. सत्य तो सत्य ही रहेगा। रावण के ललाट पर बल पड़े--क्या मैं झूठ बोलता हूँ ? तुम हमारे सेवक नहीं हो ? -कौन स्वामी और कौन सेवक ? लंकेश ! लज्जा करो । अपने . प्राणरक्षक को सेवक कहना कितना अनुचित है ? -- हनुमान के शब्दों में तल्खी थी। सम्पूर्ण सभा स्तब्ध रह गई, हनुमान की निर्भीकता पर । आगे वात न बढ़े, इसलिए छल-निपुण रावण .मुख पर मुस्कान लाकर वोला -वीर! लंका में आये तो सीधे राजसभा में आना चाहिए था। . देवरमण उद्यान में क्या रखा था जो वहाँ जा पहुंचे। . श्रीराम का सन्देश देना था सीताजी को ? -हनुमान का सपाट उत्तर था। रावण चौंक कर बोला- - -क्या? क्या"..."तुम राम का सन्देश लाये थे। -हाँ लंकेश ? मैं राम का दूत हूँ।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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