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________________ चलाते हुए भूमि से प्राप्त होती है। किन्तु जैन परम्परा उन्हें राजा जनक की पुत्री मानती है। एक ओर तो सीता के प्रति राम का अनन्य प्रेम दिखाया गया है और दूसरी और वे कटुवचन कहकर त्याग करने को उद्यत हो जाते हैं (लंका विजय के पश्चात) तव सीता अग्निदिव्य करके स्वयं को निर्दोप प्रमाणित करती है । इसके बाद भी अयोध्या में सम्पूर्ण सभा के विरोध करने पर भी राम अपनी कुल-कीर्ति के लिए सीता का त्याग कर ही देते है, उसे निर्जन वन में छुड़वा देते है । अग्निदिव्य के बाद भी राम द्वारा सीता-परित्याग के औचित्य वो स्वीकारना बड़ा कठिन है । जैन परम्परा में स्थिति भिन्न है । सीता सपत्नी डाह का शिकार बनती है और उसका अग्निदिव्य भी अयोध्या में सम्पन्न होता है । इसके बाद वह संसार के सुख-भोग त्यागकर जैन साध्वी बन जाती है। संता के महासती और विवेकी स्त्री होते हुए भी स्वर्णमय मृग के लोभ में फंसना कुछ उचित नहीं प्रतीत होता । साथ ही जब वह लक्ष्मण को दुर्वचन कहती हैं (मृग को मारने हेतु श्रीराम के जाने वाद जब मृग श्रीराम के स्वर में आर्तनाद करता है) तो वे एक सामान्य नारी से भी नीची भूमिका पर उतर आती है । लक्ष्मण के शीलस्वभाव को जानते हुए भी सीता की यह आशंका और उनके चरित्र के प्रति आक्षेप विडम्बना ही कहे जा सकते हैं । जवकि जैन परम्परा में सीता के मुख से कहीं भी न ऐसे वचन कहलवाए गए है और न उनके हृदय में ऐसी कोई शंका है। सती सीता का जैन परम्परा में सर्वत्र उज्ज्वल और गम्भीर चरित्र ही प्रकट हुआ है, वे कहीं भी अपनी गरिमा से नीचे नहीं उतरी है। वालि वालि का चरित्र वैदिक परम्परा में असंगति का शिकार है। एक ओर तो वलि को इतना भगवद्भक्त वताया गया है कि वह नियम से संध्योपासना आदि धार्मिक क्रियाएँ करता है, विवेकी है और अतिशय वलवान है, रावण का पराभव करता है किन्तु दूसरी ओर अपने छोटे भाई की स्त्री से अनुचित
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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