SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : ३ : पाताल लंका को विजय जहाँ लक्ष्मण शत्रुओं से रणक्रीड़ा कर रहे थे वहीं राम शीघ्रता पहुँचे । अग्रज को देखते ही लक्ष्मण विस्मित होकर वोले—आर्य ! आप यहाँ कैसे ? —तुम्हीं ने तो कष्टसूचक सिंहनाद करके बुलाया था । - नहीं तो ! मैंने तो कोई सिंहनाद नहीं किया । अव विस्मित होने की बारी राम की थी । क्या कहें, कुछ सूझ ही नहीं रहा था । लक्ष्मण ही पुनः - सीताजी अकेली रह गई हैं । आप तुरन्त जाकर उनकी रक्षा कीजिए । वोले ― - किन्तु वह सिंहनाद किसने किया था ? - कोई राक्षसी माया होगी । इसीलिए तो सीताजी के पास आपका जाना वहुत आवश्यक है | जल्दी कीजिए, तात ! राम उल्टे ही पैरों लौट पड़े । आकर देखा तो वहाँ भी सब उलट गया था । सीताजी का कहीं पता नहीं था । जटायु' अन्तिम साँसें गिन रहा था । १ जटायु तक पहुँचने में वन के मृगों ने सहायता दी । उनके संकेत पर ही राम-लक्ष्मण दक्षिण दिशा की ओर चले । वहाँ उन्हें युद्ध के चिह्न दिखाई दिये । एक ओर रावण का टूटा हुआ रथ दिखाई पड़ा जो जटायु
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy